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________________ ६४] * महावीर जीवन प्रभा* भगवान ने 'नमः सिद्धेभ्यः' कह कर चारित्र व्रत उच्चरा. यह मार्गशिर्ष कृष्ण दसमी का अन्तिम प्रहर बड़ा सुहावना था, हस्तोत्तर नक्षत्र और चन्द्रयोग बड़ा सुन्दर था, परमात्मा लोच (केश उखेड़ना) सेवाय मुण्डित और कषायत्याग से आभ्यन्तर मुण्डित हुए; गृहस्थावास छोड़ कर अनगार बन गये; उस वक्त शक्रेन्द्र ने सवा लक्ष मूल्य वाला देव दुष्य वस्त्र प्रभु के बायें कन्धे पर स्थापन किया, इस वक्त चौथा मनःपर्यव ज्ञान (मन के भावों का जानने वाला ज्ञान) उत्पन्न हुवा. इस प्रकार दीक्षा कार्य सम्पन्न होने के बाद इन्द्रादि नमस्कार कर नन्दीश्वर द्वीप पर गये, वहाँ अष्टान्हिक उत्सव कर वापिस देवलोक में चले गये नृपेन्द्र नन्दीवर्धन भी दिलगीर होकर अपने स्थान पर चले आये, अन्य सब नागरिक अपने अपने घर पहुँच गये. प्रकाश- उत्तम पुरुष गृहस्थाश्रम में चाहे जितना काल रहें; पर उनका लक्ष्यविन्दु तो प्रव्रज्या ही रहता है, जहाँ जन्मे वहीं मरना वे निकष्ट समझते हैं, भोग में ही जन्मे और भोग में ही मरना असमर्थ और बुद्धिहीनों का काम है, आखिर त्याग जीवन बनाना ही चाहिए; इस आप्त मान्यता के अनुसार भगवान् ने तमाम सुख साधनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034546
Book TitleMahavir Jivan Prabha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagar
PublisherAnandsagar Gyanbhandar
Publication Year1943
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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