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________________ * कैवल्य * [१०५ पर सहज ही नष्ट हो जायगे. अध्यवसायों की निर्मलता से भगवन्त तेरहवें गुणस्थान में पहुंच गए- इस वक्त यह ज्ञान विच्छेद ( लुप्त ) है; मात्र मति-श्रुतिज्ञान विद्यमान है और अवधि ज्ञान को अवकाश है. मति-श्रुति ज्ञानवाले भी जीव बहुत कम हैं; कारण कि कलियुग है और पापचर्या महा कलियुग है, वृत्तियाँ अत्यन्त अनिष्ट हैं; अतः तमाम उत्तम पदार्थ स्वयं लुप्त हैं . कहाँ भगवान् का आदर्श जीवन और कहाँ अपना तुच्छ जीवन ! क्या आप कुछ शिक्षाग्रहण कर अपनी आत्मा को कुपंथ से हटावेंगे और सुपंथ में गतिमान् ( Progressive ) होंगे? प्रयत्न से अवश्य ही सफलता मिलेगी. (समवसरण की रचना ) भगवन्त को केवल ज्ञान उत्पन्न होने से भाव तीर्थकर हुए, इससे देवों ने समवसरण की रचना की- सबसे पहिले पवन से एक योजन ( चार कोस ) भूमि साफ हो जाती है, बाद जल बिन्दुओं की वृष्टि से जमीन पवित्र हो जाती हैं; एक योजन में चारों तरफ तीन गढ ( चान्दी का गढ सोने के कांगरे- सोने का गढ रत्नों के कांगरेरत्नों का गढ मणियों के कांगरे ) बनाये जाते हैं , ठीक मध्य में स्वर्ण सिंहासन रचा जाता है, पूर्वाभिमुख भगShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034546
Book TitleMahavir Jivan Prabha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagar
PublisherAnandsagar Gyanbhandar
Publication Year1943
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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