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________________ १०४] * महावीर जीवन प्रभा * ध्यान ध्याते हुवे भगवान् को "केवल ज्ञान-केवल दर्शन" उत्पन्न हुए- यह दिव्य ज्ञान और दर्शन अनन्त पदार्थ दर्शक, तमाम ज्ञान-दर्शनों से विशिष्ट , समस्त व्याघातों से मुक्त, आच्छादन रहित , अप्रतिपाति , सकल द्रव्य-पर्याय ग्राहक, पूर्ण शशिमण्डल समान , असहायक होता है . जगद्वन्ध महावीर देव अर्हत् पद को धारण कर अष्ट महाप्रातिहार्य युक्त हुए, रागद्वेष रहित सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हुए लोक की सर्व पर्यायों को, उत्पत्ति-स्थिति , गति आगति , च्यवन- उत्पात को, तर्क-विचार को, मानसिक शुभाशुभ भावों को, चोरी-व्यभिचरादि प्रकट और गुप्त सर्व को जानते हैं- ब्रह्म-ज्ञान उत्पन्न होने पर देवों ने समवसरण रचा. - प्रकाश- परमात्मा महावीर को एक ऐसा दिव्य ज्ञान प्रकट हुवा कि एक कालावच्छन्न में लोकालोक की त्रिकाल-वस्तु 'हस्तरेखावत' जान सकते हैं और देख सकते हैं, तमाम क्षायोपशमिक ज्ञान से इसका प्रभुत्व बहुत ज्यादा है; इससे सम्पूर्ण आत्म-शक्ति विकसित होगईचार घनघाति कर्म (संसारमें परिभ्रमण कराने वाले) सर्वथा विनष्ट होगए, मात्र चार अघातक कर्म जो जली हुई रस्सी के समान निःसत्व है, शेष रह गये, वे समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034546
Book TitleMahavir Jivan Prabha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagar
PublisherAnandsagar Gyanbhandar
Publication Year1943
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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