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________________ * दीक्षा * [९१ होता जाता है त्यों त्यों आत्म किरण प्रकाश फैंकता जाता है, मानस-दशा निर्मल होजाती है, इन्द्रियाँ पराजित होती हैं, उन्माद कम होकर प्रभु भजन में जी जमता है, ध्यान और समाधि की तरफ मन दौड़ता है, मन के तूफान क्रमशः कम होजाते हैं, जगद् व्यवहार उज्ज्वल बनता है, नैतिक जीवन का पालन होता है . आपको शायद अनुभव होगा कि कुछएक वस्तुएँ छोड़ने पर भी मन पर कितना कब्जा होता है, त्याग के प्रति किस कदर भावनाएँ जागतीं हैं, तो भला तमाम खान-पान के त्याग से उन्नत दशा हो इसमें क्या आश्चर्य है ? आप स्वयं कार्यान्वित करके अनुभव करिये . हाँ ! इतना जरूर मानना होगा कि शरीर वरदाश्त कर सके उतनी ही तपस्या होना चाहिए. अवधूत और देह-मूर्छा के त्यागी को तो सब तरह कष्टों का सामना करके तपश्चर्या करना अभिष्ट है . भगवान् महावीर ने समर्थ होने पर भी कर्म विध्वंस के लिये तप का आचरण किया, यहाँ तक कि बहुत कम दिन आहार ग्रहण किया, भगवन्त की भावना अत्युच्च थी, तथापि तपश्चरण किया, इससे जनता की उस मान्यता का प्रतिकार होजाता है कि "भूखे मरने से क्या होता है ! भावना होना चाहिए, जिसको खाने को न मिले, वह तपस्या करे; इत्यादि " लोभी-लालचु और भूख के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034546
Book TitleMahavir Jivan Prabha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagar
PublisherAnandsagar Gyanbhandar
Publication Year1943
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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