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________________ ( २६ ) | हम थोड़े में इन मतभेदोंका दिग्दर्शन करा देना उचित समझते हैं। १ - तीर्थंकर भगवान् केवल निरवद्य करणी की श्राज्ञा देते हैं, सावध करणी की आज्ञा नहीं देते। निरवद्य करणी से जीव को मोक्ष पद प्राप्त होता है परन्तु सावद्य करणी से नये कर्म का बंध होकर जीवकी दुर्गति होती है। जो कर्म रोकने और काटने के कार्य हैं भगवान उन्हें करने की आज्ञा देते हैं। पर इसके अतिरिक्त दूसरे सारे कार्य सावय हैं, पापास्रव के कारण हैं अतः प्रभु आज्ञा नहीं देते । तेरापंथी सम्प्रदाय की यह मान्यता है कि निरवद्य कार्य याने भगवानका अनुमोदित कार्य कोई भी मतावलम्वी क्यों न करे वह आज्ञा में है। जैनके दूसरे सम्प्रदायवाले जैनेतरकी शुद्ध करणीको भी आज्ञा बाहिर समझते हैं । * २– तेरापन्थी सम्प्रदाय के अनुसार जहाँ तीर्थकर भगवान् की आज्ञा है वहाँ धर्म और जहाँ प्रभु ( बीतराग देव ) की आज्ञा नहीं वहाँ धर्म नहीं है । जैसे कि श्राहारादिको समानधर्मी साधुओं में वितरण कर खाना आज्ञामें है, अतः साधुके लिये धर्म है । परन्तु किसी साधुको किसी दुष्टके आक्रमण करने पर उस साधु की पक्ष लेकर किसी भी साधुके लिये उस अत्याचारी को दंड देना, ताड़ना आदि बल प्रकाश करना आज्ञाके बाहिर है अर्थात् मना है । साधु एक दूसरे की व्यावच करे इसमें प्रभु आज्ञा से धर्म है परन्तु एक साधुके लिये एक श्रावक की * दोय करणी संसार में सावय निरवद्य जाण । निर्वद्य में जिण आगन्यां, विण स्युं पामै पद निर्वाण | सावध करणी संसार नी, तिण में जिन श्रागन्यां नहीं होय । कर्म बंधे छे तेह थी, धर्म म जाएयो कोय ॥ कर्म रूके तिण करणी में आगन्यां, कर्म कटै तिए करणी में जाए रे । यां दोयां करणी विना नवि आगन्यां, वे सगली सावद्य पिछाण रे ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanibhandar.com
SR No.034529
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year1945
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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