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________________ श्री जैन शासन संस्था १५] इतने पर भी नहीं माने तो श्री संघ से बाहर भी किया जा सकता है। चाहे कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो? धर्म प्रधान है, संस्कृति मुख्य है। स्थानीय श्री संघ, सकल श्री संघ, श्री जैन शासन और जैन धर्म के सब अंग जो कि परंपरागत है, वे सब इस युग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभु से चले आते हैं और इस अवसपिणी की अपेक्षा अन्तिम युग प्रधान श्री दुप्पहसूरि तक कम ज्यादा अंश में जारी रहने वाले हैं। अर्थात् गई व भावी चौबीसियों में शाश्वत विद्यमान श्री जैनशासन के हित, संपत्ति, आदर्श, निर्णय, परंपरागत प्रस्ताव आदि की रक्षा करने की जबाबदारी प्रत्येक जैन के जिम्मे है । यह बात कभी किसी को उपेक्षित नहीं करनी चाहिए। इसलिये जो पांचवे आरे तक जैन शासन चलते रहने को शास्त्राज्ञा मानता हो और उसको चलाने का अपना कर्तव्य समझता हो उसके लिये जरा भी निर्बलता बतलाए बिना, द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के शब्दों से ठगाए बिना, बाधक तत्वों को जरा भी स्थान न देकर, साधक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का रक्षण करने के लिये सदा उद्यत रहने की अधिक तत्परता के साथ सावधान रहने का प्रसंग अभी वर्तमान में आया है। इसलिये परम्परागत चली आने वाली वस्तु हो, या जो विहित हो, उसमें जरा भी परिवर्तन करके उसमें छोटी मोटी खामी हो तो भी यथाशक्य त्रुटियां दूर करने का प्रयत्न करते रहकर इसके अनुसार चलना यह सन्मार्ग है। . इसमें बांध छोड़ न्यूनाधिक या जोड़ तोड़ (फेरफार) की गुंजाइश नहीं है, तो भी जहां तक बन सके वहां तक संचभेद न होने देकर काम चालू रखना चाहिए। यदि मजबूरन संघभेद का प्रसंग आये तो भो मूल श्री संघ की परंपरा को सुरक्षित एवं कायम रखे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034526
Book TitleJain Shasan Samstha ki Shastriya Sanchalan Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Munot
PublisherShankarlal Munot
Publication Year1966
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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