________________
तृतीय अध्याय ।
८५
दुःख के समय को नहीं जानती हैं, पति को नाम का ही समझ के अपना पतिव्रत धर्म नहीं पालती हैं, पति के द्वारा जब लोभ की पूरी तृप्ति नहीं होती तब वे कुभार्या पापिनी स्त्रियां लोभ की तृप्ति होने की आशा से अनेक कुकर्म करती हैं, परन्तु जब इच्छा के अनुसार सुख मिलने के बदले आबरू और प्रतिष्ठा जाती है तथा लोगों में निन्दा होती है तब पश्चात्ताप ( पछतावा ) कर के अपने सम्पूर्ण जन्म को दुःख में बिताती हैं ।
बहुत सी स्त्रियां ऐसी भी देखी जाती हैं कि जो ऊपर से पतिव्रता का धर्म दिखाती हैं और मन में कपट रख के गुप्त रीति से कुकर्म करती हैं परन्तु यह निश्चय है कि ऐसी स्त्रियों का वह झूठा धर्म कभी छिपा नहीं रहता है, किसी बुद्धिमान् ने कहा भी है कि "चार दिन की चोरी और छः दिन का छिनाला हुआ करता है" तात्पर्य यह है कि कितना ही छिपा कर कोई चोरी और छिनाला करे किन्तु वह चार दिन छिप कर आखिर को प्रकट हो ही जाता है, ऐसी स्त्री का कष्ट जब प्रकट हो जाता है तब उस स्त्री परसे पति का विश्वास अवश्य उठ जाता है और प्रीति दूर हो जाती है, मेरी सम्मति में ऐसी स्त्रियों को स्त्री नहीं किन्तु राक्षसी कहना चाहिये, ऐसी अधर्मिणी स्त्रियों को धिक्कार है और धिक्कार है उन के माता पिताओं को कि जिन्हों ने कुल को दाग लगानेवाली ऐसी कुपात्र ( अयोग्य ) पुत्री को जन्म दिया ।
इस लिये सुपात्र पुत्री का यही धर्म है कि माता पिता ने पंचों की साक्षी से उस का हाथ जिसे पकड़ा दिया है उसी को परम वल्लभ ( अत्यन्त प्रिय ) समझे तथा उस की तरफ से जो कुछ खाना पीना और वस्त्रालंकार आदि मिले उसी पर सन्तोष रक्खे, क्योंकि इसी में उस की प्रतिष्ठा, शोभा और सुख है ।
जो स्त्री कुदरती नियम का भय रख कर अपने पति की इच्छानुसार मन, वचन और शरीर को वश में रख कर अपने पातिव्रत धर्म को समझ कर उसी के अनुसार चलती है उस को धन्य है और उस के माता पिता को भी धन्य है कि जिन्हों ने ऐसा पुत्रीरत्न उत्पन्न किया ।
देखो ! जो कुलवती स्त्री होती है वह कभी अपनी इच्छा के अनुसार स्वतंत्र व नहीं करनी है, जैसा कि कहा भी है कि:
बालपने पितु मातु वश, तरुणी पति आधार ||
वृद्धपने सुत वश रहे, नहिँ स्वतंत्र कुलनार ॥ १ ॥
अर्थात् स्त्री बालक हो तब अपने मा बाप की आज्ञा में रह कर उन की शिक्षा
के
अनुसार वर्ताव करे, युवावस्था में पति को ही अपना आधार मान कर उस की आज्ञा के अनुसार वर्ते तथा वृद्धावस्था में जो पुत्र हो उस का पालन पोषण करे और सुपुत्र का कथन माने, इस प्रकार कुलीन स्त्री को स्वतन्त्र होकर कभी नहीं रहना चाहिये ॥ १ ॥
८ जै० सं०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com