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________________ ७२४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। कर अंग्रेजी पढ़े हुए लोगों का तो विश्वास इस पर नाममात्र को भी नहीं रहा, सत्य है कि-"न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तस्य निन्दा सततं करोति" अर्थात् जो जिस के गुण को नहीं जानता है वह उस की निरन्तर निन्दा किया करता है, अस्तु-इस के विषय में किसी का विचार चाहे कैसा ही क्यों न हो परन्तु पूर्वीय सिद्धान्त से यह तो मुक्त कण्ठ से कहा जा सकता है कि-यह विद्या प्राचीन समय में अति आदर पा चुकी है तथा पूर्वीय विद्वानों ने इस विद्या का अपने बनाये हुए ग्रन्थों में बहुत कुछ उल्लेख किया है । पूर्व काल में इस विद्या का प्रचार यद्यपि प्रायः सब ही देशों में था तथापि मारवाड़ देश में तो यह विद्या अति उत्कृष्ट रूप से प्रचलित थी, देखो ! मारवाड़ देश में पूर्व समय में (थोड़े ही समय पहिले) परदेश आदि को गमन करनेवालों के सहायक (चोर आदि से रक्षा करनेवाले) बन कर भाटी आदि राजपूत जाया करते थे वे लोग जानवरों की भाषा आदि के शुभाशुभ शकुनो को भली भाँति जानते थे, हड़बूकी नामक सांखला राजपूत हुए हैं, जिन्हों ने परदेशगमनादि के शुभाशुभ शकुनों के विषय में सैकड़ों दोहे बनाये हैं, वर्तमान में रेल आदि के द्वारा यात्रा करने का प्रचार हो गया है इस कारण उक्त (मारवाड़) देश में भी शकुनों का प्रचार घट गया है और घटता चला जाता है। हमारे देशवासी बहुत से जन यह भी नहीं जानते हैं कि-शुभ शकुन कौन से होते हैं तथा अशुभ शकुन कौन से होते हैं, यह बहुत ही लजास्पद विषय है, क्योंकि शुभाशुभ शकुनों का जानना और यात्रा के समय उन का देखना अत्यावश्यक है, देखो ! शकुन ही आगामी शुभाशुभ के (भले वा बुरे के) अथवा यों समझो कि-कार्य की सिद्धि वा असिद्धि तथा सुख बा दुःख के सूचक होते हैं। शकुन दो प्रकार से लिये ( देखे ) जाते हैं-एक तो रमल के द्वारा वा पाशा आदि के द्वारा कार्य के विषय में लिये (देखे)जाते हैं और दूसरे प्रदेशादि को गमन करने के समय शुभाशुभ फल के विषय में लिये ( देखे ) जाते हैं, इन्हीं दोनों प्रकार के शकुनोंके विषय में संक्षेप से इस प्रकरण में लिखेंगे, इन में से प्रथम वर्ग के शकुनों के विषय में गर्गाचार्य मुनि की संस्कृत में बनाई हुई पाशशकुनावलि का भाषा में अनुवाद कर वर्णन करेंगे, उस के पश्चात् प्रदेशादिगमनविषयक शुभाशुभ शकुनों का संक्षेप से वर्णन करेंगे, आशा है कि-गृहस्थ जन शकुनों का विज्ञान कर इस से लाभ उठावेंगे। १-तीनों लोकों के पूज्य श्रीगर्गाचार्य महात्मा ने सत्यपासा केवली राजा अग्रसेन के सामने प्रजाहितकारिणी इस (शकुनावली) का वर्णन संस्कृत गद्य में किया था उसी का भापानुवाद कर के यहां पर हम ने लिखा है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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