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________________ पञ्चम अध्याय । राजा वा हाकिम को अर्जी देना, बकालत वा मुखत्यारी लेना, वैरी से मुकवला करना, सर्प के विष तथा भूत का उतारना, रोगी को दवा देना, विघ्न का शान्त करना, कष्टी स्त्री का उपाय करना, हाथी, घोड़ा तथा सवारी ( बग्घी रथ आदि) का लेना, भोजन करना, स्नान करना, स्त्री को ऋतुदान देना, नई वही को लिखना, व्यापार करना, राजा का शत्रु से लड़ाई करने को जाना, जहाज वा अनि बोट को दर्याव में चलाना, वैरी के मकान में पैर रखना, नदी आदि के जल में तैरना तथा किसी को रुपये उधार देना वा लेना इत्यादि, तात्पर्य यह है कि ये सब कार्य सूर्य स्वर में करने चाहिये, क्योंकि सूर्य स्वर में किये हुए उक्त कार्य सफल होते हैं । ७०७ ७- जिस समय चलता २ एक स्वर रुक कर दूसरा स्वर बदलने को होता है अर्थात् जब चन्द्र स्वर बदल कर सूर्य स्वर होने को होता है अथवा सूर्य स्वर बदल कर चन्द्र स्वर होने को होता है उस समय पाँच सात मिनट तक दोनों स्वर चलने लगते हैं, उसी को सुखमना स्वर कहते हैं, इस ( सुखमना ) स्वर में कोई काम नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस स्वर में किसी काम के करने से वह निष्फल होता है तथा उस से क्लेश भी उत्पन्न होता है । S sibl ८- कृष्ण पक्ष ( अँधेरे पक्ष ) का स्वामी ( मालिक ) सूर्य है और शुक्ल पक्ष ( उजेले पक्ष ) का स्वामी चन्द्र है । ९ - कृष्ण पक्ष की प्रतिपद् (पढ़िवा ) को यदि प्रातःकाल सूर्य स्वर चले तो वह पक्ष बहुत आनन्द से वीतता है । १० - शुक्ल पक्ष की प्रतिपद् के दिन यदि प्रातःकाल चन्द्र स्वर चले तो वह पक्ष भी बहुत सुख और आनन्द से बीतता है । ११- यदि चन्द्र की तिथि में ( शुक्ल पक्ष की प्रतिपद् को प्रातःकाल ) सूर्य स्वर चले तो क्लेश और पीड़ा होती है तथा कुछ द्रव्य की भी हानि होती है । १२- - सूर्य की तिथि में ( कृष्ण पक्ष की प्रतिपद् को प्रातः काल ) यदि चन्द्र स्वर चले तो पीड़ा; कलह तथा राजा से किसी प्रकार का भय होता है और चित्त में चञ्चलता उत्पन्न होती है । १३- यदि कदाचित् उक्त दोनों पक्षों ( कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष ) की पड़िवा के दिन प्रातःकाल सुखमना स्वर चले तो उस मास में हानि और लाभ समान ( बराबर ) ही रहते हैं । १४ - कृष्ण पक्ष की पन्द्रह तिथियों में से क्रम २ से तीन तीन तिथियाँ सूर्य और चन्द्र की होती हैं, जैसे- पड़िवा, द्वितीया और तृतीया, ये तीन तिथियाँ सूर्यकी है, चतुर्थी, पञ्चमी और षष्टी, ये ती तिथियाँ चन्द्र की हैं, इसी प्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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