SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 720
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०६ जैनसम्प्रदायशिक्षा। ४-दक्षिण अर्थात् दाहिने (जीमणे) तरफ जो श्वास नाक के द्वारा निकलता है उस को इङ्गला नाड़ी वा सूर्य स्वर कहते हैं, वाम अर्थात् बायें (डाबी) तरफ जो श्वास नाक के द्वारा निकलता है उस को पिङ्गला नाड़ी वा चन्द्र स्वर कहते हैं तथा दोनों तरफ (दाहिने और बायें तरफ) अर्थात् उक्त दोनों नाड़ियों (दोनों स्वरों) के बीच में अर्थात् दोनों नाड़ियों के द्वारा जो स्वर चलता है उस को सुखमना नाड़ी (स्वर) कहते हैं, इन में से जब बायाँ स्वर चलता हो तब चन्द्र का उदय जानना चाहिये तथा जब दाहिना स्वर चलता हो तब सूर्य का उदय जानना चाहिये। ५-शीतल और स्थिर कार्यों को चन्द्र स्वर में करना चाहिये, जैसे-नये मन्दिर का बनवाना, मन्दिर की नीव का खुदाना, मूर्ति की प्रतिष्ठा करना, मूल नायक की मूर्ति को स्थापित करना, मन्दिर पर दण्ड तथा कलश का चढ़ाना, उपाश्रय (उपासरा); धर्मशाला; दानशाला; विद्याशाला; पुस्तकालय; घर (मकान); होट; महल; गढ़ और कोट का बनवाना, सङ्घ की माला का पहिराना, दान देना, दीक्षा देना, यज्ञोपवीत देना, नगर में प्रवेश करना, नये मकान में प्रवेश करना, कपडों और आभूषणों (गहनों) का कराना अथवा मोल लेना, नये गहने और कपड़े का पहरना, अधिकार का लेना, ओषधि का बनाना, खेती करना, बाग बगीचे का लगाना, राजा आदि बड़े पुरुषों से मित्रता करना, राज्यसिंहासन पर बैठना तथा योगाभ्यास करना इत्यादि, तात्पर्य यह है कि-ये सब कार्य चन्द्र स्वर में करने चाहिये क्योंकि चन्द्र स्वर में किये हुए उक्त कार्य कल्याणकारी होते हैं। ६-क्रूर और चर कार्यों को सूर्य स्वर में करना चाहिये, जैसे--विद्या के सीखने का प्रारम्भ करना, ध्यान साधना, मन्त्र तथा देव की आराधना करना, १-प्रत्येक मनुष्य जब श्वास लेता है तब उस की नासिका के दोनों छेदों में से किसी एक छेद से प्रचण्डतया ( तेजी के साथ ) श्वास निकलता है तथा दूसरे छेद से मन्दतया (धीरे २) श्वास निकलता है अर्थात् दोनों छेदों में से समान श्वास नहीं निकलता हैं, इन में से जिस तरफ का श्वास तेजी के जी के साथ अर्थात अधिक निकलता हो उसी स्वर को चलता हआ स्वर समझना चाहिये, दाहिने छेद में से जो वेग से श्वास निकले उसे सूर्य स्वर कहते हैं, बायें छेद में से जो अधिक श्वास निकले उसे चन्द्र स्वर कहते हैं तथा दोनों छेदों में से जो समान श्वास निकले अथवा कभी एक में से अधिक निकले और कभी दूसरे में से अधिक निकले उसे सुखमना स्वर कहते हैं, परन्तु यह (सुखमना) स्वर प्रायः उस समय में चलता है जब कि स्वर बदलना चाहता है, अच्छे नीरोग मनुष्य के दिन रात में घण्टे घण्टे भर तक चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर अदल बदल होते हुए चलते रहते हैं परन्तु रोगी मनुष्य के यह नियम नहीं रहता है अर्थात् उस के स्वर में समय की न्यूनाधिकता (कमी ज्यादती) भी हो जाती है ॥ २-इस में भी जलतत्व और पृथिवी तत्त्व का होना अति श्रेष्ठ होता है ॥ ३-हाट अर्थात् दुकान ॥ ४-इस में भी पृथिवी तत्व और जल तत्व का होना अति श्रेष्ठ होता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy