SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 672
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५८ जैनसम्प्रदायशिक्षा । इसी रीति से इस के विषय में बहुत सी बातें प्रचलित हैं जिन का वर्णन अनावश्यक समझ कर नहीं करते हैं, खैर - देवालय के बनने का कारण चाहे कोई ही क्यों न हो किन्तु असल में सारांश तो यही है कि इस देवालय के बनवाने में अनुपमा और लीलावती की धर्मबुद्धि ही मुख्य कारणभूत समझनी चाहिये, क्योंकि - निस्सीम धर्मबुद्धि और निष्काम भक्ति के विना ऐसे महत् कार्य का कराना अति कठिन है, देखो ! आबू सरीखे दुर्गम मार्ग पर तीन हज़ार फुट ऊँची संगमरमर पत्थर की ऐसी मनोहर इमारत का उठवाना क्या असामान्य औदार्य का दर्शक नहीं है ? सब ही जानते हैं कि- आबू के पहाड़ में संगमरमर पत्थर की खान नहीं है किन्तु मन्दिर में लगा हुआ सब ही पत्थर आबू के नीचे से करीब पच्चीस माइल की दूरी से जरीवा की खान में से लाया गया था ( यह पत्थर अम्बा भवानी के डूंगर के समीप वखर प्रान्त में मिलता है ) परन्तु कैसे लाया गया, कौन से मार्ग से लाया गया, लाने के समय क्या २ परिश्रम उठाना पड़ा और कितने द्रव्य का खर्च हुआ, इस की तर्कना करना अति कठिन ही नहीं किन्तु भशक्यवत् प्रतीत होती है, देखो ! वर्तमान में तो आबू पर गाड़ी आदि के जाने के लिये एक प्रशस्त मार्ग बना दिया गया है परन्तु पहिले ( देवालय के बनने के समय ) तो आबू पर चढ़ने का मार्ग अति दुर्गम था अर्थात् पूर्व समय में मार्ग में गहन झाड़ी थी तथा अघोरी जैसी क्रूर जाति का सञ्चार आदि था, भला सोचने की बात है कि इन सब कठिनाइयों के उपस्थित होने के समय में इस देवालय की स्थापना जिन पुरुषों ने करवाई थी उन में धर्म के हृढ़ निश्चय और उस में स्थिर भक्ति के होने में सन्देह ही क्या है । वस्तुपाल और तेजपाल ने इस देवालय के अतिरिक्त भी देवालय, प्रतिमा, शिवालय, उपाश्रय ( उपासरे ), विद्याशाला, स्तूप, मस्जिद, कुआ, तालाब, बावड़ी, सदाव्रत और पुस्तकालय की स्थापना आदि अनेक शुभ कार्य किये थे, जिन का वर्णन हम कहाँ तक करें ? बुद्धिमान् पुरुष ऊपर के ही कुछ वर्णन से उन की धर्मबुद्धि और लक्ष्मीपात्रता का अनुमान कर सकते हैं । इन ( वस्तुपाल और तेजपाल ) को उदाहरणरूप में आगे रखने से यह बात भी स्पष्ट मालूम हो सकती है कि पूर्व काल में इस आर्यावर्त्त देश में बड़े २ परोपकारी धर्मात्मा तथा कुबेर के समान धनाढ्य गृहस्थ जन हो चुके हैं, आहा ! ऐसे ही पुरुषरत्नों से यह रत्नगर्भा वसुन्धरा शोभायमान होती है और ऐसे ही नररत्नों की सत्कीर्ति और नाम सदा कायम रहता है, देखो ! शुभ कार्यों के करने वाले वे वस्तुपाल और तेजपाल इस संसार से चले जा चुके हैं, उन के गृहस्थान आदि के भी कोई चिह्न इस समय ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलते हैं, परन्तु उक्त महोदयों के नामाङ्कित कार्यों से इस भारतभूमि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy