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________________ चतुर्थ अध्याय । देखा है उस को झूट कौन कह सकता है, परन्तु तुम मालूम नहीं है कि- ठगनेवाले लोग ऐसी २ चालाकियां किया करते हैं जो कि साधारण लोगों की समझ में कभी नहीं आ सकती हैं और उन की वैसी ही चालाकियों से तुम्हारे जैसे भोले लोग ठगे जाते हैं, देखो ! तुम लोगों से यदि कोई विद्योन्नति ( विद्या की वृद्धि ) आदि उत्तम काम के लिये पांच रुपये भी मांगे तो तुम कभी नहीं दे सकते हो, परन्तु उन धूर्त पाखण्डियों को खुशी के साथ सेकड़ों रुपये दे देते हो, बस इसी का नाम अविद्या का प्रसाद ( अज्ञान की कृपा ) है, तुम कहते हो कि उस झाड़ा देनेवाले उस्ताद ने हम को कागज में भूतनी का चेहरा साक्षात् दिखला दिया; सो प्रथम तो हम तुम से यही पूंछते हैं कि तुम ने उस कागज में लिखे हुए चेहरे को देखकर यह कैसे निश्चय कर लिया कि यह भूतनी का चेहरा है, क्योंकि तुम ने पहले तो कभी भूतनी को देखा ही नहीं था, ( यह नियम की बात है कि पहिले साक्षाद देखे हुए मूर्तिमान् पदार्थ के चित्र को देखकर भी वह पदार्थ जाना जाता है ) बस विना भूतिनी को देखे कागज में लिखे हुए चित्र को देख कर भूतिनी के चेहरे का निश्चय कर लेना तुम्हारी अज्ञानता नहीं तो और क्या है ? ( प्रश्न ) हम ने माना कि कागज में भूतनी का चेहरा भले ही न हो परन्तु बिना लिखे वह चेहरा उस कागज में आ गया, यह उस की पूरी उस्तादी नहीं तो और क्या है ? जब कि विना लिखे उस की विद्या के बल से वह चेहरा कागज में आ गया इस से यह ठीक निश्चय होता है कि वह विद्या में पूरा उस्ताद था और जब उसकी उस्तादी का निश्चय हो गया तो उस के कथनानुसार कागज में भूतनी के चेहरे का भी विश्वास करना ही पड़ता है । (उत्तर) उस ने जो तुम को कागज में साक्षात् चेहरा दिखला दिया वह उस का विद्या का बल नहीं किन्तु केवल उस की चालाकी थी, तुम उस चालाकी को जो विद्या का बल समझते हो यह तुम्हारी बिलकुल अज्ञानता तथा पदार्थविद्यानभिज्ञता ( पदार्थविद्या को न जानना) है, देखो ! विना लिखे कागज़ में चित्र का दिखला देना यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि पदार्थविद्या के द्वारा अनेक प्रकार के अद्भुत ( विचित्र ) कार्य दिखलाये जा सकते हैं, उन के यथार्थ तत्त्व को न समझ कर भूत प्रेत आदि का निश्चय कर लेना अत्यन्त मूर्खता है, इन के सिवाय इस बात का जान लेना भी आवश्यक ( ज़रूरी ) है कि उन्माद आदि कई रोगों का विशेष सम्बन्ध मन के साथ है, इस लिये कमी २ वे महीने दो महीने तक नहीं भी होते हैं तथा कभी २ जब मन और तरफ को झुक जाता है अथवा मन की आशा पूर्ण हो जाती है तब बिलकुल ही देखने में नहीं आते हैं । ५८७ उन्माद रोग में रोना बकना आदि लक्षण मन सम्बन्ध से होते हैं परन्तु मूर्ख जन उन्हें देख कर भूत और भूतिनी को समझ लेते हैं, यह भ्रम वर्त्तमान में प्रायः देखा जाता है, इस का हेतु केवल कुसंस्कार ( बुरा संस्कार ) ही हैं, देखो ! जब कोई छोटा वालक रोता है तब उसकी माता कहती है कि - " हौआ आया" इस को सुन कर बालक चुप हो जाता है बस उस बालक के हृदय में उसी हौए का संस्कार जम जाता है और वह आजन्म ( जन्मभर ) नहीं निकलता है, प्रिय वाचकवृन्द ! विचारो तो सही कि वह हौआ क्या चीज है, कुछ भी नहीं, परन्तु उस अभावरूप हौए का भी बुरा असर बालक के कोमल हृदय पर कैसा पड़ता है कि वह जन्मभर नहीं जाता है, देखो ! हमारे देशी भाइयों में से बहुत से लोग रात्रि के समय में दूसरे ग्राम में वा किसी दूसरी जगह अकेले जाने में डरते हैं, इस का क्या कारण है, केवल यही कारण है कि अज्ञान माता ने बालकपन में उन के हृदय में हौआ का भय और उस का बुरा संस्कार स्थापित कर दिया है । यह कुसंस्कार विद्या से रहित मारवाड़ आदि अनेक देशों में तो अधिक देखा ही जाता है परन्तु गुजरात आदि जो कि पठित देश कहलाते हैं वे भी इस के भी दो पैर आगे बढ़े हुए हैं, इसका कारण स्त्रीवर्ग की अज्ञानता के सिवाय और कुछ नहीं है । यद्यपि इस विषय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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