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________________ चतुर्थ अध्याय । ५८५ उन्माद अर्थात् हिष्टीरिया ( Hysteria ) रोग का वर्णन । लक्षण - यद्यपि इस रोग के लक्षण विविध प्रकार के ( अनेक तरह के ) होते हैं अर्थात् ऐसे बहुत थोड़े ही रोग होंगे कि जिन के चिह्न इस ( हिष्टीरिया रोग ) में न होते हो तथापि इस का मुख्य चिह्न खैंचतान है । १ - यह हिष्टीरियारूपी भूत स्त्रियों में ही प्रायः देखा जाता है अर्थात् स्त्रियों के ही यह रोग प्रायः होता है, बहुत से भोले लोगों ने इस रोगके यथार्थ ( असली ) स्वरूप को न समझ कर इसे भूत वा भूतनी मान रक्खा है, अर्थात् वर्त्तमान में यह देखा जाता है कि जब यह रोग स्त्रियों को होता है तथा इस के हँसना और रोना आदि लक्षणों को जब स्त्रियां प्रकट करती हैं उस समय हमारे भोले श्रीमान् लोग तथा साधारण जन रोग और उस के हेतु को न जान कर भूत आदि की बाधा ही समझ लेते हैं तथा डोरा डांडा, यन्त्र, मन्त्र और झाड़ा झपाटा आदि करने कराने में कुछभी बाकी नहीं रखते हैं, ऐसे समय को पाकर ठग लोग भी उनको अपने पंजे में फँसा कर अपना मतलब साधने में कुछ भी बाकी नहीं रखते हैं, इस प्रकार यन्त्र, मंत्र, डोराडांडा और झाड़ा झपाटा आदि करते कराते उन को वर्षों वीत जाते हैं, सैकड़ों और हजारों रुपये खर्च हो जाते हैं, परन्तु रोगी को कुछ भी लाभ नहीं होता है। अर्थात् वह हिटीरियारूपी भूत ज्यों का त्यों ही बना रहता है, आखिरकार परिणाम ( नतीजा ) यह होता है कि रोगी के सब कुटुम्बी जन हाथ मल मल कर पछताते हैं और बहुत समय के हो जाने से वह रोग प्रबलरूप धारण कर लेता है, और रोगी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । क्योंकि उन के वचनों है, जो लोग उन के प्रिय वाचकवृन्द ! अब तो चेतो और अविद्या का शरण छोड़कर विद्या देवी की उपासना करो, अर्थात् भूत प्रेत आदि के भ्रम ( बहम ) को तथा मावड्याँ जी और भैरूँ जी आदि के दोष को एवं कामण मण आदि के बहमों को छोड़ो, देखो ! इन्ही बहमों ने इस गृहस्थाश्रम का सत्यनाश कर दिया है और करते जाते हैं, इस लिये सज्जनों और बुद्धिमानों को इन बहमों को स्वयं त्याग देना चाहिये तथा प्रति नगर ( हर शहर ) और प्रति ग्राम ( हर गाँव ) में इन बदमों से बचने का उपदेश भी लोगों को करना चाहिये कि जिस से ये बहम सर्वत्र ही दूर हो जावें । प्रश्न- आप ने भूत प्रेत आदि के विषय में केवल भ्रम ( बहम ) मात्र बतलाया, सो क्या आप भी अंग्रेजी पढ़ने पढ़ानेवाले लोगों के समान पूर्वाचार्यों के वचनों को मिथ्या ठहराते हो ? उत्तर - प्रिय बन्धुओ ! हम पूर्वाचार्यों के वचनों को कभी मिथ्या नहीं ठहरा सकते हैं और न उन के वचनों का खण्डन कर सकते हैं, का मानना तथा उसी के अनुसार चलना, हम सब लोगों का परम धर्म वचनों को नहीं मानते तथा उन के वचनों का खण्डन करते हैं सो यह उन लोगों की महाभूल है, क्योंकि वे (पूर्वाचार्य) महात्मा, परोपकारी ( दूसरों का उपकार करनेवाले ) और सत्यवादी (सत्य बोलनेवाले ) थे तथा उन का वचन इस भव ( लोक ) और पर भव ( दूसरा लोक ) दोनों में हितकारी ( भलाई करनेवाला) है, इसी लिये हम ने भी इस ग्रन्थ में उन्हीं महात्माओं के वचनों को अनेक शास्त्रों से लेकर संगृहीत ( इकठ्ठा) किया है, किन्तु जिन लोगों ने उक्त महात्माओं के वचनों को नहीं माना, वे अविद्या के उपासक समझे गये और उसी के प्रसाद से वे धर्म को अधर्म, सत्य को असत्य, असत्य को सत्य, शुद्ध को अशुद्ध, अशुद्ध को शुद्ध, जड़ को चेतन, चेतन को जड़ तथा अधर्म को धर्म समझने लगे, बस उन्हीं लोगों के प्रताप से आज इस पवित्र गृहस्थाश्रम की यह दुर्दशा हो रही है और होती जाती है तथा इस आश्रम की यह दुर्दशा होने से इस के आश्रयीभूत ( सहारा लेनेवाले ) शेष तीनों आश्रमों की दुर्दशा होने में आश्चर्य ही क्या है ? क्योंकि - " जैसा आहार, वैसा उद्गार" बस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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