SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५ द्वितीय अध्याय । ६.-सर्व उपाधियों के परित्याग करने को उत्सर्ग तप कहते हैं। इस प्रकार से यह बारह प्रकार का तप है, इस तप का जिस धर्म में उपदेश किया गया हो वही धर्म मानने के योग्य समझना चाहिये तथा उक्त बारह तपों का जिस ने ग्रहण और धारण किया हो उसी को तपस्वी समझना चाहिये तथा उसी के वचन पर श्रद्धा रखनी चाहिये किन्तु जो पुरुष उपवास का तो नाम करे और ध, मिठाई, मावा (खोया), घी, कन्द, फल और पक्वान्न आदि सुन्दर २ पदार्थ का घमसान करे ( भोजन करे) अथवा दिनभर भूखा रहकर रात्रि में उत्तम त्तम पदार्थों का भोजन करे-उस को तपस्वी नहीं समझना चाहिये क्योंकि-देखो ! बुद्धिमानों के सोचने की यह बात है कि सूर्य इस जगत् का नेत्ररूप है क्योंकि सब ही उसी के प्रकाश से सब पदार्थों को देखते हैं और इसी महत्त को विचार कर लोग उस को नारायण तथा ईश्वरस्वरूप मानते हैं, फिर उसी क अस्त होने पर भोजन करना और उस को व्रत अर्थात् तप मानना कदापि योग्य नहीं है, इसी प्रकार से तप के अन्य भेदों में भी वर्तमान में अनेक त्रुटियां पड़ रही हैं, जिन का निदर्शन फिर कभी समयानुसार किया जावेगा—यहां पर तो केवल यही समझ लेना चाहिये कि ये जो तप के बारह भेद कहे है-इन का जिस धर्म में पूर्णतया वर्णन हो और जिस धर्म में ये तप यथाविधि सेवन किये जाते हों-वही श्रेष्ट धर्म है, यह धर्म की तीसरी परीक्षा कही गई। धर्म की चौथी परीक्षा दया के द्वारा की जाती है-एकेन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्दिय पर्यन्त जीवों को अपने समान जानना तथा उन को किसी भी प्रकार का क्लेश न पहुंचाना, इसी का नाम दया है और यही पूर्णरूप से (बीस विश्वा) दया कहलाती है परन्तु इस पूर्णरूप दया का वर्ताव मनुष्यमात्र से होना अति कठिन है-किन्तु इस ( पूर्णरूप ) दयाका पालन तो संसार के त्यागी, ज्ञानवान् मुनिः न ही कर सकते हैं, हां केवल शुद्ध गृहस्थ पुरुष सवा विश्वामात्र दया का पालन कर सकता है, इस लिये समझदार गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि—चलते, वियोग के न होने की चिन्ता करना, तीसरा रोगनिदानात ध्यान अर्थात् रोग के कारण से डरना और उस को पास में न आने देनेकी चिन्ता करना, चौथा-अग्रशोचनामार्तध्यानअर्थात् आगामि समय के लिये सुख और द्रव्य आदि की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के मनो. रथों की चिन्ता करना । एवं रौद्रध्यान के भी चार भेद हैं-प्रथम-हिमानन्द रौद्रध्यानअर्थात अनेक प्रकार की जीवहिंसा कर के (परापकार वा गृहरचना आदि के द्वारा ) मन में आनन्द मानना, दूसरा-मृषानन्दरीद्रध्यान-अर्थात् मिथ्या के द्वारा लोगों को धोका देकर मन में आनन्द मानना, तीसरा--चौर्यानन्द रौद्रध्यान-अर्थात् अनेक प्रकार की चोरी ( परद्रव्य का अपहरण आदि ) करके आनन्द मानना, चौथा-संरक्षणानन्दरीद्रध्यान--अर्थात् अधर्मा द का भय न करके द्रव्यादि का संग्रह कर तथा उस की रक्षा कर मन में आनन्द मानना, इन क विशेष वर्णन जैनतत्त्वादर्श आदि ग्रन्थों में देखना चाहिये ।। १--बीस विश्वा दया का वर्णन ओसवाल वंशावलि में आगे किया जायगा है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy