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________________ ५७२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। २-कोह की छाल, खिरेटी और कौंच के बीज, इन का चूर्ण कर तथा उस में शहद, घी और मिश्री मिला कर दूध के साथ पीना चाहिये, इसके पीने से राजयक्ष्मा तथा खांसी शीघ्र ही मिट जाती है। ३-शहद, सुवर्णमक्षिका ( सोना माकी) की भस्म, बायविडंग, शिलाजीत, लोह की भस्म, घी और हरड़, इन सब को मिला कर सेवन करने से घोर भी यक्ष्मा रोग नष्ट हो जाता है, परन्तु इस औषधि के सेवन के समय पूरे पथ्य से रहना चाहिये। ४-मिश्री, घी और शहद, इन को मिला कर सेवन करना चाहिये तथा इस के ऊपर दूध पीना चाहिये, इस के सेवन से यक्ष्मा का नाश तथा शरीर में पुष्टि होती है। ___५-सितोपलादि चूर्ण-मिश्री १६ तोले, वंशलोचन ८ तोले, पीपल ४ तोले, छोटी इलायची के बीज २ तोले और दालचीनी १ तोला, इन सब का चूर्ण कर शहद और घी मिला कर चाटना चाहिये, इस के सेवन से राजयक्ष्मा, खांसी, श्वास, ज्वर, पसवाड़े का शूल, मन्दाग्नि, जिह्वा की विरसता, अरुचि, हाथ पैरों का दाह, और ऊर्ध्वगत रक्तपित्त, ये सब रोग शीघ्र ही नष्ट होते हैं । ६-जातीफलादि चूर्ण-जायफल, वायविडंग, चित्रक, तगर, तिल, ताली. सपत्र, चन्दन, सोंठ, लौंग, छोटी इलायची के बीज, भीमसेनी कपूर, हरड़, आमला, काली मिर्च, पीपल और वंशलोचन, ये प्रत्येक तीन २ तोले, चतुर्जातक की चारों औषधियों के तीन तोले तथा भांग सात पल, इन सब का चूर्ण करके सब चूर्ण के समान मिश्री मिलानी चाहिये, इस के सेवन से क्षय, खांसी, श्वास, संग्रहणी, अरुचि, जुखाम और मन्दाग्नि, ये सब रोग शीघ्र ही नष्ट होते हैं। ७-अडूसे का रस एक सेर, सफेद चीनी आधसेर, पीपल आठ तोले और धी आठ तोले, इन सब को मन्दाग्नि से पका कर अवलेह (चटनी) बना लेना कुछ २ गर्म नस्य नाक में डाल देनी चाहिये, जिस समय नाक, में नस्य डाली जावे उस समय रोगी को चाहिये कि माथे को न हिलावे, क्रोध न करे, बोले नहीं, छींके नहीं और हँसे नहीं, वयोंकि माथे के हिलाने आदि से स्नेह बाहर को आ जाता है अर्थात् भीतर नहीं पहुँचता है और ऐसा होने से खाँसी, सरेकमा, मस्तकपीड़ा और नेत्रपीड़ा उत्पन्न हो जाती है, नस्य को शृंगाटक ( नाक की भीतरी हड्डी ) में पहुँचने पर्यन्त स्थिर रखना चाहिये अर्थात् निगल नहीं जाना चाहिये, पीछे बैठ कर मुख में आये हुए द्रव को थूक देना चाहिये, नस्य के देने के पश्चात् मन में सन्ताप न करे, धूल उड़ने के स्थान में न जावे, क्रोध न करे, दश दा पन्द्रह मिनट तक न सोवे, किन्तु सीधा पड़ा रहे, रेचननस्य से मस्तक के खाली होने के पश्चात् धूम्रपान तथा कबलग्रहण हितकारी होता है, नस्य के द्वारा मस्तक की ठीक २ शुद्धि हो जाने से शरीर का हलका होना, मल का साफ उतरना, नाड़ियों के दर्द का नाश, व्याधि का नाश और चित्त तथा इन्द्रियों की प्रसन्नता, इत्यादि लक्षण होते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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