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________________ चतुर्थ अध्याय । ५७१ की मध्यम और एक शाण की मात्रा अधम है, प्रत्येक नथुने में मात्रा की दो २ बूंदों के डालने । अतिमर्श कहते हैं, दोषों का बलाबल विचार कर एक दिन में दो वार, वा तीन वार, अथवा एक दिन के अन्तर से, अथवा दो दिन के अन्तर से मर्श नस्य देनी चाहिये, अथवा तीन; पाँच वा सात दिन तक निरन्तर इस नस्य का उपयोग करना चाहिये, परन्तु उस में यह सावधानता रखनी चाहिये कि रोगी को छींक आदि की व्याकुलता न होने पावे, मर्श नस्य देने से समय पर स्थान से भ्रष्ट हो कर दोष कुपित हो कर मस्तक के मर्म स्थान से विरेचित होने लगता है कि जिस से मस्तक में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, अथवा दोषों के क्षीण होने से रोग उत्पन्न हो जाते हैं, यदि दोष के उत्क्लेश (स्थान से भ्रष्ट) होने से रोग उत्पन्न हो तो वमनरूप शोधकन का उपयोग करना चाहिये और यदि मेद आदि का क्षय होने से रोग उत्पन्न हो तो पूर्वोक्त स्नेह के द्वारा उन्हीं क्षीण दोषों को पुष्ट करे, मस्तक नाक और नेत्र के रोग, सूर्यावर्त, आधाशीशी, दाँत के रोग, निर्बलता, गर्दन भुजा और कन्धा के रोग, मुखशोष, कर्णनाद, वातपित्तसम्बंधी रोग, विना समय के बालों का श्वेत होना तथा बाल और डाढ़ी मूंछ का झर २ कर गिरना, इन सब रोगों में स्नेहों से अथवा मधुर पदार्थों के रसों से स्नेहननस्य को देना चाहिये। बृंहणनस्य की विधि-खांड के साथ केशर को दूध मे पीस कर पीछे घी में सेंक कर नस्य देने से वातरक्त की पीड़ा शान्त होती है, भौंह; कपाल; नेत्र; मस्तक और कान के रोग, सूर्यावर्त और आधाशीशी, इन रोगों का भी नाश होता है, यदि स्नेहननस्य देना हो तो अणुतैल (इस की विधि सुश्रुत में देखो), नारायण तैल, माषादि तैल, अथवा योग्य औषधों से परिपक्क किये हुए घृत से देना चाहिये, यदि कफयुक्त वादी का दर्द हो तो तेल की और यदि केवल वादी का ही दर्द हो तो मज्जा की नस्य देनी चाहिये, पित्त का दर्द हो तो सर्वदा घी की नस्य देनी चाहिये, उड़द, कौंच के वीज, रास्ना, अंड की जड़, वला, रोहिष तृण और आसगन्ध, इन का काथ करके तथा इस में हींग और सेंधेनिमक को डालकर कुछ गर्म काथ की नस्य के देने से कम्पयुक्त पक्षाघात (अर्धाग), अर्दित वात (लकवा), गर्दन का रह जाना और अपबाहुक ( हाथों का रह जाना) रोग दूर हो जाता है, मर्श और प्रतिमर्शनामक बृंहण नस्य के दो भेद कह चुके हैं, उन में से प्रतिमर्श नस्य के १४ समय माने गये हैं, जो कि ये हैं-प्रातःकाल, दाँतन करने के बाद, घर से बाहर निकलते समय; व्यायाम के बाद, मार्ग चल कर आने के पश्चात, मैथुन के पश्चात्, मलत्याग के पीछे, मूत्र करने के पीछे, अञ्जन आँजने (लगाने ) के पीछे, कवल विधि के पीछे, भोजन के पीछे दिन में सोने के पीछे, वमन के पीछे और सायंकाल में, प्रतिमर्श नस्य के ठीक होने की यह पहिचान है कि-थोड़ी ही छींक आने से यदि नाक का स्नेह मुख में आ जावे तो जान लेना चाहिये कि प्रतिमर्श नस्य उत्तम रीति से हो गई है, नाक से मुख में आये हुए पदार्थ को निगलना नहीं चाहिये किन्तु उसे थूक देना चाहिये । प्रतिमर्श नस्य के अधिकारी-क्षीण मनुष्य, तृषारोगी, मुखशोषरोगी, बालक और वृद्ध, इन को प्रतिमर्श नस्य हितकारी है । प्रतिमर्श नस्य के गुण-प्रतिमर्श नस्य के उपयोग से हंसली के ऊपर के रोग कदापि नहीं होते हैं तथा देह में गुलजट नहीं पड़ते हैं तथा बालों का श्वेत होना मिटता है, इन के सिवाय-इस नस्य से इन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है, बहेड़ा, नीम, कंभारी, हरड़, लसोड़े और मालकांगनी; इन में से एक एक पदार्थ की नस्य लेने का अभ्यास रखने से अवश्य श्वेत बाल काले हो जाते हैं । नस्य की विधि-दाँतन करने के पश्चात्, मल और मूत्रादि का त्याग करने के पीछे धूमपान द्वारा कपाल तथा गले में स्वेदित कर रोगी को पवन और धूल से रहित स्थान में चित ( सीधा ) लेटा देना चाहिये तथा उस के मस्तक को कुछ लटकता रखना चाहिये, हाथ पैरों को पसार देना तथा नेत्रों को वस्त्र से ढाँक देना चाहिये पीछे नाक की अनी को ऊँची करके नस्य देनी चाहिये अर्थात् सोने चाँदी आदि की चमची से, वा सीप से, वा किसी यन्त्र की युक्ति से, वा कपड़े से, अथवा रुई से, बीच में धार न टूटने पावे इस रीति से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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