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________________ चतुर्थ अध्याय । ५३५ लाभ तब विशेष होता है जब कि पारे से मुखपाक तो कम हो अर्थात् थूक में थोड़ी सी विशेषता (अधिकता) हो परन्तु वह बहुत दिनों तक बनी रहे, किन्तु मुखपाक विशेष (अधिक) हो और वह थोड़े ही दिनों तक रहे उस से बहुत कम फायदा होता है। बहुधा यह भी देखा गया है कि-मुखपाक के विना उत्पन्न किये भी युक्ति से दिया हुआ पारा पूरा २ (पूरे तौर से) फायदा करता है, इस लिये अधिक मुखपाक के होने से अर्थात् अधिक थूक के बहने ही से लाभ होता है यह विचार बिलकुल ही भ्रमयुक्त (बहम से भरा हुआ) है। ७-डाक्टर हचिनसन की यह सम्मति (राय) है कि-पारे की दवा को एक दो मास तक थोड़ी २ बराबर जारी रखना चाहिये, क्योंकि उन का यह कथन है कि-"उपदेश पर पारद (पारे) को जल्दी देओ, बहुत दिनोंतक उस का देना जारी रक्खो और मुखपाक को उत्पन्न मत करो" इत्यादि। ८-गर्मीवाले रोगी को पारा देने की चार रीतियां हैं-उन में से प्रथम रीति यह है कि-मुख के द्वारा पारा पेट में दिया (पहुँचाया) जाता है, दूसरी रीति यह है कि पारे का धुआँ अथवा भाफ दी दाती है, तीसरी रीति यह है कि-पारे की दवा न तो पेट में खानी पड़ती है और न उसका धुआँ वा भाफ ही लेनी पड़ती है किन्तु केवल पारा जाँघ के मूल में तथा काँख में लगाया जाता है और चौथी रीति यह है कि-सप्ताह (हफ्ते ) में तीन वार त्वचा (चमड़ी) में पिचकारी लगाई जाती है। - इस प्रकार पहिले जब गर्मी के दूसरे विभाग के चिह्न मालूम हों तब अथवा उस के कुछ पहिले इन चारों रीतियों में से किसी रीति से यदि युक्ति के साथ पारे की दवा का सेवन कराया जावे तो उपदंश के लिये इस के समान दूसरी कोई दवा नहीं है, परन्तु पारे सम्बन्धी दवा किसी कुशल (चतुर वैद्य वा डाक्टर से ही लेनी चाहिये अर्थात् मूर्ख वैद्यों से यह दवा कभी नहीं लेनी चाहिये। (प्रश्न ) सर्व साधारण को यह बात कैसे मालूम हो सकती है कि-यह कुशल वैद्य है अथवा मूर्ख वैद्य है ? (उत्तर) जिस प्रकार सर्व साधारण लोग सोने, चाँदी, जवाहिरात तथा दूसरी भी अनेक वस्तुओं की परीक्षा करते हैं अथवा दूसरे किसी के द्वारा उन की परीक्षा करा लेते हैं उसी प्रकार कुशल तथा मूर्ख १-थूक में थोड़ी विशेषता होकर बहुत दिनोंतक बनी रहने से बड़ा लाभ होता है अर्थात् रोगी को खाने पीने आदि की तकलीफ भी नहीं होती है तथा काम भी बन जाता है ।। २-ऐसा करने से रोगी को विशेष कष्ट न होकर फायदा हो जाता है ॥ ३-दूसरे विभाग ( दूसरे दर्जे) के चिह्न ज्वर आदि, जिन को पहिले लिख चुके हैं ॥ ४-क्योंकि मूर्ख वैद्यों से पारे की दवा के लेने से कभी कभी महा भयङ्कर ( बड़ा खतरनाक ) परिणाम हो जाता है ॥ ५-सब ही जानते हैं कि कोई भी मनुष्य विना परीक्षा किये अथवा विना परीक्षा कराये सोने चाँदी आदि को नहीं लेता है, क्योंकि उसे धोका हो जाने का भय बना रहता है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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