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________________ चतुर्थ अध्याय । ५१५ ३-अनार की जड़ की छाल एक रुपये भर लेकर तथा उस का चूर्ण कर उस में से आधा प्रातःकाल तथा आधा शाम को बूरा के साथ मिला कर फंकी बनाकर लेना चाहिये। ४-बायविडंग दो बाल, निसोत के छाल का चूर्ण एक बाल और कपीला एक बाल, इन सब औषधों को एक औंस उकलते (उबलते ) हुए जल में पाव घंटे (१५ मिनट) तक भिगा कर उस का नितरा हुआ पानी लेकर दो २ चमसे भर तीन २ घंटे के बाद दिन में दो तीन वार लेना चाहिये, इस से कृमि निकल जाती हैं, परन्तु स्मरण रहे कि बुखार में यह दवा नहीं लेनी चाहिये। ५-यदि पेट में घपटी कृमि हों तो पहिले जुलाब देना चाहिये, पीछे क्यालोमेल देना चाहिये तथा फिर जुलाब देना चाहिये । ६-मेलफर के तेल की ३० वा ४० बूंदें सोंठ के जल में देनी चाहिये और चार घंटे के पीछे अंडी का तेल अथवा जुलफे का जुलाब देना चाहिये। ७-यदि तांतू के समान कृमि हों तो क्यालोमेल तथा सेंटोनाईन के देने से वे निकल जाती हैं, परन्तु ये कृमियां वारंवार हो जाती हैं, इस लिये निमक के पानी की, कपासियों के पानी की, अथवा लोहे के अर्क में पानी मिला कर उस की पिचकारी गुदा में मारनी चाहिये, ऐसा करने से कृमि धुल कर निकल जाती हैं। ८-आध सेर निमक को मीठे जल में गला कर तथा उसमें से तीन वा चार औंस लेकर उस की पिचकारी गुदा में मारनी चाहिये, इस से सब कृमियां निकल जाती हैं। ९-पिचकारी के लिये इस के सिवाय-चूने का पानी भी मुफीद (फायदेमन्द) है, अथवा टिंकचर आफ स्टील की पिचकारी मारनी चाहिये, यदि टिंकचर आफ स्टील न मिले तो इस के बदले (एबज़) में सिताब के पत्तों को बंफा कर अथवा उन्हें पीस कर पानी निकाल लेना चाहिये तथा इस पानी की पिचकारी मारनी चाहिये, यह भी बहुत फायदा करती है, परन्तु पिचकारी सदा मारनी चाहिये, और तीन चार दिन के बाद जुलाब देते रहना चाहिये। १-केवल ( अकेली) वायविडंग ही कृमिरोग का बहुत अच्छा इलाज है, अर्थात् इस ही के सेवन से सब कृमियां मिट जाती है ॥ २-बुखार में इस दवा के देने से वमन आदि की संभावना रहती है ॥ ३-यह एक अंग्रेजी ओषधि है ॥ ४-मेलफर नामक अंग्रेजी ओषधी है यह अस्पतालों में सर्वत्र मिलती है ॥ ५-इस से सब कृमियां निकल पड़ती हैं। ६-कपासियों अर्थात् बिनौलों के पानी की ॥ ७-लोहे का अर्क अस्पतालों में बहुत मिलता है ॥ ८-बफाकर अर्थात् उबालकर॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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