SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१४ जैनसम्प्रदायशिक्षा | की अल्पता (कमी ), बकना, नींद में दाँतों का पीसना, चौंक उठना, हिचकी और चातान, इत्यादि लक्षण भी इस रोग में होते हैं । इस रोग में कभी २ ऐसा होता है कि-लक्षणों का ठीक परिज्ञान न होने से वैद्य वा डाक्टर भी इस रोग का निश्चय नहीं कर सकते हैं । जब यह रोग प्रबल हो जाता है तब हैजा, मिरगी और क्षिप्तचित्तता ( दीवानापन ) इत्यादि रोग भी इसी से उत्पन्न हो जाते हैं' । चिकित्सा - १ - यदि कृमि गोल हों तो इन के दूर करने के लिये सेंटोनाईन सादी और अच्छी चिकित्सा है, इस के देने की विधि यह है कि एक से पांच न तक सेंटोनाईने को मिश्री के साथ में रात को देना चाहिये तथा प्रातःकाल थोड़ासा अंडी का तेल पिलाना चाहिये, ऐसा करने से दस्त के द्वारा कृमियां निकल जायेंगी, यदि पेट में अधिक कृमियों की शंका हो तो एक दो दिन के बाद फिर भी इसी प्रकार करना चाहिये, ऐसा करने से सब कृमियाँ निकल जायेंगी । ऊपर कही हुई चिकित्सा से बच्चे की दो तीन दिन में ५० से १०० तक कृमियां निकल जाती हैं । बहुत से लोग यह समझते हैं कि जब कृमि की कोथली ( थैली ) निकल जाती है तब वच्चा मर जाता है, परन्तु यह उन का मिथ्या भ्रम हैं * । १ - यदि सेंटोनाईन न मिल सके तो उस के बदले ( एवज़) में बाज़ार में जो लोझेन्लीस अर्थात् गोल चपटी टिकियां बिकती हैं उन्हें देना चाहिये, क्योंकि उन में भी सेंटोनाईन के साथ बूरा वा दूसरा मीठा पदार्थ मिला रहता है, इनमें एक सुभीता यह भी है कि बच्चे इन्हें मिठाई समझ कर शीघ्र ही खा भी लेते हैं । २ - टरपेंटाईन कृमि को गिराती है इस लिये इस की चार ड्राम मात्रा को चार ड्राम अंडी के तेल, चार ड्राम गोंद के पानी और एक औंस सोए के पानी को मिला कर पिलाना चाहिये । १- अर्थात् हैज़ा और मिरगी आदि इस रोग के उपद्रव है । २ यह एक सफेद, साफ तथा कडुए स्वादवाली वस्तु होती है तथा अँग्रेजी औषधालयों में प्रायः सर्वत्र मिलती है ॥ ३रात को देने से दवा का असर रातभर में खूब हो जाता है अर्थात् कृमियां अपने स्थान को छोड़ देती है तथा निःसत्व ही हो जाती हैं तथा प्रातःकाल अण्डी के तेल का जुलाब देने से सब कृमियां शौच के मार्ग से निकल जाती है और अग्नि प्रदीप्त होती है । ४- क्योंकि कृमियों की कोथली के निकलने से और बच्चें के मरने से क्या सम्बन्ध है ॥ ५ - ये प्रायः सफेद रंग की होती है तथा सौदागर लोकों के पास विका करती है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy