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________________ ५१२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। स्नान नहीं करना चाहिये, अधिक जल नहीं पीना चाहिये, खिग्ध (चिकना) अधिक खान पान नहीं करना चाहिये, जागरण नहीं करना चाहिये, बहुत परिश्रम (महनत ) नहीं करना चाहिये तथा स्वच्छ (साफ) हवा का सेवन करते रहना चाहिये, इस रोग के लिये सामुद्रिक पवन (दरियाव की हवा ) अथवा पात्रासम्बन्धी हवा अधिक फायदेमन्द है। कृमि, चूरणिया, गिंडोला (वर्मस) का वर्णन । विवेचन-कृमियों के गिरने से शरीर में जो २ विकार उत्पन्न होते हैं वे यद्यपि अति भयंकर हैं परन्तु प्रायः मनुष्य इस रोग को साधारण समझते हैं, सो यह उन की बड़ी भूल है, देखो! देशी वैद्यकशास्त्र में तथा डाक्टरी चिकित्सा में इस रोग का बहुत कुछ निर्णय किया है अर्थात् इस के विषय में वहां बहुत सी सूक्ष्म (बारीक) बातें बतलाई गई हैं, जिन का जान लेना मनुध्यमात्र को अत्यावश्यक ( बहुत जरूरी) है, यद्यपि उन सब बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन करना यहां पर हमें भी आवश्यक है परन्तु ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से उन को विस्तारपूर्वक न बतला कर संक्षेप से ही उन का वर्णन करते हैं। भेद-कृमि की मुख्यतया दो जाति हैं-बाहर की और भीतर की, उन में से बाहर की कृमि ये हैं-जुए, लीख और चर्मजुए, इत्यादि, और भीतर की कृमि ताँतू आदि हैं। ___ इन कृमियों में से कुछ तो कफ में, कुछ खून में और कुछ मल में उत्पन्न होती हैं। कारणबाहर की कृमि शरीर तथा कपड़े के मैलेपन अर्थात् गलीजपन से होती हैं और भीतर की कृमि अजीर्ण में खानेवाले के, मीठे तथा खट्टे पदार्थों के खानेवाले के, पतले पदार्थों के खानेवाले के , आटा, गुड़ और मीठा मिले हुए पदार्थ के खानेवाले के, दिन में सोनेवाले के, परस्पर विरुद्ध अन्न पान के खानेवाले के, बहुत वनस्पति की खुराक के खानेवाले के तथा बहुत मेवा आदि के खानेवाले के प्रकट होती हैं। प्रायः ऐसा भी होता है कि-कृमियों के अण्डे खुराक के साथ पेट में चले जाते हैं तथा आँतों में उन का पोषण होने से उन की वृद्धि होती रहती है। १-ग्रहणी के आधीन जोरोग हैं उन की अजीर्ण के समान चिकित्सा करनी चाहिये, इस (ग्रहणी) रोग में लंघन करना, दीपनकर्ता औषधों का देना तथा अतीसार रोग में जो चिकित्सायें कही गई हैं उन का प्रयोग करना लाभदायक है, दोषों का आम के सहित होना वा माम से रहित होना जिस प्रकार अतीसार रोग में कह दिया गया है उसी प्रकार इस में भी जान लेना चाहिये, यदि दोष आम के सहित हों तो अतीसार रोग के समान ही आम का पाचन करना चाहिये, पेया आदि हल के अन्न को खाना चाहिये तथा पञ्चकोल आदि को उपयोग में लाना चाहिये । २-ताँतू कृमि गोल, चपटी तथा २० से ३० फीटतक लम्बी होती है ॥ ३-अर्थात्बाहरी कृमि बाहरी मल ( पसीना आदि ) से उत्पन्न होती हैं ॥ ४-पतले पदार्थों के अर्थात् कढ़ी, पना और श्रीखण्ड म्यादि पदार्थों के खानेवाले के ॥ ५-अर्थात् यह भीतरी कृमियों का बाह्य कारण है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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