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________________ चतुर्थ अध्याय । ५११ चाहिये, अर्थात् दही में चौथाई हिस्से से अधिक पानी डाल कर नहीं विलोना चाहिये, क्योंकि गाढ़ी छाछ इस रोग में उत्तम खुराक है, अर्थात् अधिक फायदा करती है, संग्रहणीवाले रोगी के लिये अकेली छाछ ही ऊपर लिखे अनुसार उत्तम खुराक है, क्योंकि यह पोषण कर जठराग्नि को प्रबल करती है। __इस रोग से युक्त मनुष्य को चाहिये कि-किसी पूर्ण विद्वान् वैद्य की सम्मति से सब कार्य करे, किन्तु मूर्ख वैद्य के फन्दे में न पड़े। ___ छाछ के कुछ समयतक सेवन करने के पीछे भात आदि हलकी खुराक का लेना प्रारंभ करना चाहिये तथा हलकी खुराक के लेने के समय में भी छाछ के सेवन को नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि मृत्यु के मुख में पड़े हुए तथा अस्थि (हाड़) मात्र शेष रहे हुए भी संग्रहणी के रोगी को विद्वानों की सम्मति से ली हुई छाछ अमृतरूप होकर जीवनदान देती है, परन्तु यह स्मरण रहे कि-धीरज रखकर कई महीनोंतक अकेली छाछ ही को पीकर रोगी को रहना चाहिये, सत्य तो यह है कि-इस के सिवाय दूसरा साधन इस रोग के मिटाने के लिये किसी ग्रन्थ में नहीं देखा गया है। इस रोग से युक्त पुरुष के लिये तकसेवन का गुणानुवाद जैनाचार्यरचित योगचिन्तामणि नामक वैद्यकग्रन्थ में बहुत कुछ लिखा है तथा इस के विषय में हमारा प्रत्यक्ष अनुभव भी है अर्थात् इस को हमने पथ्य और दवा के रूप में ठीक रीति से पाया है। ३-मूंग की दाल का पानी, धनियां, जीरा, सेंधा निमक और सोंठ डाल कर छाछ को पीना चाहिये। ४-ढाई मासे बेल की गिरी को छाछ में मिला कर पीना चाहिये तथा केवल छाछ की ही खुराक रखनी चाहिये। ___ ५-दुग्धवटी-शुद्ध वत्सनाग चार बाल भर, अफीम चार बाल भर, लोहभम पांच रत्ती भर तथा अभ्रक एक मासे भर, इन सब को दूध में पीस कर दो दो रत्ती की गोलियां बनानी चाहियें तथा उन का शक्ति के अनुसार सेवन करना चाहिये, यह संग्रहणी तथा सूजन की सर्वोत्तम ओषधि है, परन्तु स्मरण रहे कि-जब तक इस दुग्धवटी का सेवन किया जावे तब तक दूध के सिवाय दूसरी खुराक नहीं खानी चाहिये। विशेषसूचना-अतीसार रोग में लिखे अनुसार इस रोग में भी अधिक १-अर्थात् छाछ को अधिक पानी डाल कर पतली नहीं कर देनी चाहिये ॥ २-क्योंकि पूर्ण विद्वान् वैद्य की सम्मति के अनुसार सब कार्य न करके मूर्ख वैद्य के फन्दे में फंस जाने से यह रोग अवश्य ही प्राणों का शत्रु हो जाता है अर्थात् प्राण ले कर ही छोड़ता है ।। ३-तथा अन्य ग्रन्थों में भी इस के विषय में बहुत कुछ कहा गया है अर्थात् इस के विषय में यहांतक कहा गया है कि जैसे स्वर्गलोक में देवताओं के लिये सुखकारी अमृत है उसी प्रकार इस संसार में अमृत के समान सुखकारी छाछ है, इस में बड़ी भारी एक विशेषता यह है कि इस के सेवन से दग्ध हुए दोष फिर नहीं उठते ( उभडते ) हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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