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________________ ५०२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। (कच्चा ) समझना चाहिये और जल में डालने से यदि वह (मल) पानी के ऊपर तिरने (उतराने) लगे तो उसे पक्क (पका हुआ) मल समझना चाहिये, यदि मल आम का ( कच्चा) हो अर्थात् आम से मिला हुआ हो तो उस के एकदम बन्द करने की ओषधि नहीं देनी चाहिये, क्योंकि आमके दस्त को एकदम बन्द कर देने से कई प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है, जैसे-अफरा, संग्रहणी, मस्सा, भगन्दर, शोथ, पाण्डु, तिल्ली, गोला, प्रमेह, पेट का रोग तथा ज्वर आदि, परन्तु हां इस के साथ यह बात भी अवश्य याद रखनी चाहिये कियदि रोगी बालक, बुढा, अथवा अशक्त (नाताकत) हो तथा अधिक दस्तों को न सह सकता हो तो आम के दस्तों को भी एकदम रोक देना चाहिये। १-इस रोग की सब से अच्छी चिकित्सा लंघन है परन्तु पित्तातीसार तथा रक्तातीसार में लंघन नहीं कराना चाहिये, इन के सिवाय शेप अतीसारों में उचित लंघन कराने से रोगी को प्यास बहुत लगती है, उस को मिटाने के लिये धनियां तथा बाला को उकाल कर वह पानी ठंढा कर पिलाना चाहिये, अथवा धनियां, सोंठ, मोथा और पित्तपापड़े का तथा बाला का जल पिलाना चाहिये। _२-यदि अजीर्ण तथा आम का दस्त होता हो तो लंघन कराने के पीछे रोगी को प्रवाही तथा हलका भोजन देना चाहिये तथा आम को पचानेवाला, दीपन (अग्नि को प्रदीप्त करनेवाला), पाचन (मल और अन्न को पचानेवाला) और स्तम्भन ( मल को रोकनेवाला) औषध देना चाहिये। अब पृथक् २ दोषों के अनुसार पृथक् २ चिकित्सा को लिखते हैं: १-वातातीसार-इस में भुनी हुई भांग का चूर्ण शहद के साथ लेना चाहिये। अथवा चावल भर अफीम तथा केशर को शहद में लेना चाहिये तथा पथ्य में दही चावल खाना चाहिये। १-इस के सिवाय आम और पक की यह भी परीक्षा है कि-कचे दोषों से मिला हुआ आम मल गिलगिला होता है तथा उस में दुर्गन्धि विशेष आती है परन्तु पक्क मल गिलगिला नहीं होता है तथा उस में दुर्गन्धि कम आती है ॥ २-वातपित्त की प्रकृतिवाला जो रोगी हो, जिस का बल और धातु क्षीण हो गये हों, जो अत्यन्त दोषों से युक्त हो और जिस को बे परिमाण दस्त हो चुके हों, ऐसे रोगी के भी आम के दस्तों को रोक देना चाहिये, ऐसे रोगियों को पाचन औषध के देने से मृत्यु हो जाती है, क्योंकि पाचन औषध के देने से और भी दस्त होने लगते हैं और रोगी उन का सहन नहीं कर सकता है, इस लिये पूर्व की अपेक्षा और भी अशक्ति (निर्बलता) बढ़ कर मृत्यु हो जाती है ।। ३-प्रवाही अर्थात् पतले पदार्थ, जैसे-यवागू और यूष आदि । (प्रश्न ) वैद्यक ग्रन्थों में यह लिखा है कि-शूलरोगी दो दल के अन्नों को (मूंग आदि को), क्षयरोगी स्त्रीसंग को, अतीसाररोगी पतले पदार्थों और खटाई को, तथा ज्वररोगी उक्त सब को त्याग देवे, इस कथन से अतीसाररोगी को पतले पदार्थ तो वार्जत हैं, फिर आपने प्रवाही पदार्थ देने को क्यों कहा? (उत्तर) पतले पदार्थों का जो अतीसार रोग में निषेध किया है वहां दूध और घृत आदि का निषेध समझना चाहिये किन्तु यूष और पेया आदि पतले पदार्थों का निषेध नहीं है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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