SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८८ जैनसम्प्रदायशिक्षा। केवल इसी प्रयोजन से लिखते हैं कि-साधारण गृहस्थ जन सामान्य कारणों से उत्पन्न होनेवाले उक्त रोगों से उन के कारणों को जान कर बचे रहें तथा दैववश वा आत्मदोष से' यदि उक्त रोगों में से कोई रोग उत्पन्न हो जावे तो लक्षणों के द्वारा उसका निश्चय तथा चिकित्सा कर उस (रोग) से मुक्ति पासकें, क्योंकिवर्तमान में यह बात प्रायः देखी जाती है कि-एक साधारण रोग के भी उत्पन्न हो जानेपर सर्व साधारण को वैद्य के अन्वेषण (ढूंढने) और विनय; द्रव्यव्यय; अपने कार्य का त्याग; समय का नाश तथा क्लेशसहन आदि के द्वारा अतिकष्ट उठाना पड़ता है। इस प्रकरण में उन्हीं रोंगों का वर्णन किया गया है जो कि वर्तमान में प्रायः प्रचरित हो रहे हैं तथा जिन से प्राणियों को अनेक कष्ट पहुंच रहे हैं, जैसेअजीर्ण, अग्निमान्द्यै ( अग्नि की मन्दता,), शिर का दर्द, अतीसार, संग्रहणी, कृमि, उपदंश और प्रमेह आदि । __इन के वर्णन में यह भी विशेषता की गई है कि-इन के कारण और लक्षणों को भली भाँति समझा कर चिकित्सा का वह उत्तम क्रम रक्खा गया है कि-जिसे समझ कर एक साधारण पुरुप भी लाभ उठा सकता है, इस पर भी ओषधियों के प्रयोग प्रायः वे लिखे गये हैं जो कि रोगोंपर अनेकवार लाभकारी सिद्ध हो चुके हैं। इस के सिवाय यथास्थल रोगविशेष पर अंग्रेजी प्रयोग भी दिखला दिये गये हैं, जो कि-अनेक विद्वान् डाक्टरों के द्वारा प्रायः लाभकारी सिद्ध हो चुके हैं। आशा है कि-सर्वसाधारण तथा गृहस्थ जन इस से अवश्य लाभ उठावेंगे। अब कारण लक्षण तथा चिकित्सा के क्रम से आवश्यक रोगों का वर्णन किया जाता है। ____ अजीर्ण (इंडाइजेश्चन ) का वर्णन । अजीर्ण का रोग यद्यपि एक बहुत साधारण रोग माना जाता है परन्तु विचार कर देखने से यह अच्छे प्रकार से विदित हो जाता है कि यह रोग कुछ समय के पश्चात् प्रबलरूप को धारण कर लेता है अर्थात् इस रोग से शरीर में अनेक दूसरे रोगों की जड़ स्थित (कायम) हो जाती है, इस लिये इस रोग को साधारण न समझकर इस पर पूरा लक्ष्य (ध्यान) देना चाहिये, तात्पर्य यह है कि-यदि शरीर में ज़रा भी अजीर्ण मालूम पड़े तो उस का शीघ्र ही १-दैववश अर्थात् पूर्वकृत अशुभ कर्मों के उदय से तथा आत्मदोष से अर्थात् रोग से बचानेवाले कारणों का विज्ञान होनेपर भी कभी न कभी भूल हो जाने से ॥ २-इस कष्ट को प्रायः वे ही जन ठीक तौर से जानते हैं जिन को इस कष्ट का अनुभव हो चुका है ॥ ३-अजीर्ण और अग्निमान्द्य, ये दो रोग तो प्रायः वर्तमान में मनुष्यों को अत्यन्त ही कष्ट पहुँचा रहे हैं और विचार कर देखा जावे तो ये ही दोनों रोग सब रोगों के मूलकारण हैं, अर्थात् इन्हीं दोनों से सब रोग उत्पन्न होते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy