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________________ चतुर्थ अध्याय । ४८७ विशेष सूचना-इस रोग से युक्त पुरुष को खुराक अच्छी देनी चाहिये, इस रोगी के लिये दूध अथवा दूध डाल कर पकाई हुई चावलों की कांजी उत्तम पथ्य है, रोगी के आसपास स्वच्छता (सफाई) रखनी चाहिये तथा रोगी का विशेष स्पर्श नहीं करना चाहिये, देखो ! अस्पतालों में इस रोगी को दूसरे रोगी के पास डाक्टर लोग नहीं जाने देते हैं, उन का यह भी कथन है कि-डाक्टर के द्वारा इस रोग का चेप दूसरे रोगियों के तथा खास कर जखमवाले रोगियों के शरीर में प्रवेश कर जाता है, इसलिये ज़खमवाले आदमी को इस रोगी के पास कभी नहीं आना चाहिये और न डाक्टर को इस रोगी का स्पर्श कर के जखमवाले रोगी का स्पर्श करना चाहिये। यह चतुर्थअध्यायका ज्वरवर्णन नामक चौदहवां प्रकरण समाप्त हुआ। पन्द्रहवां प्रकरण। प्रकीर्णरोगवर्णन । प्रकीर्णरोगे और उन से शारीरिक सम्बन्ध । यह बात प्रायः सब ही को विदित है कि वर्तमान समय में इस देश में प्रत्येक गृह में कोई न कोई साधारण रोग प्रायः बना ही रहता है किन्तु यह कहना भी अयुक्त न होगा कि प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य प्रक्षिप्त (फुटकर ) रोगों में से किसी न किसी रोग में फंसा ही रहता है, इस का क्या कारण है, इस विषय को हम यहां ग्रन्थ के विस्तार के भय से नहीं दिखलाना चाहते हैं, क्योंकि प्रथम हम इस विषय में संक्षेप से कुछ कथन कर चुके हैं तथा तत्वदर्शी बुद्धिमान् जन वर्तमान में प्रचरित अनेक रोगों के कारणों को जानते भी हैं, क्योंकि अनेक बुद्धिमानों ने उक्त रोगों के कारणों को सर्व साधारण को प्रकट कर इन से बचाने का भी उद्योग किया है तथा करते जाते हैं। हम यहां पर ( इस प्रकरण में ) उक्त रोगों में से कतिपय रोगोंके विशेषकारण, लक्षण तथा शास्त्रसम्मत (वैद्यकशास्त्र की सम्मति से युक्त) चिकित्सा को १-क्योंकि यह रोग भी चेपी ( स्पर्शादि के द्वारा लगनेवाला) है ॥ २ प्रकीर्ण रोग अर्थात् फुटकर रोग ॥ ३-क्योंकि वर्तमान समय में लोगों को आरोग्यताके मुख्य हेतु देश और काल का विचार एवं प्रकृति के अनुकूल आहार विहार आदि का ज्ञान बिलकुल ही नहीं है और न इस के विषय में उन की कोई चेष्टा है, बस फिर प्रत्येक गृह में रोग के होने में अथवा प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य के रोगी होने में आश्चर्य ही क्या है ॥ ४-कतिपय रोगों के अर्थात् जिन रोगों से गृहस्थों को प्रायः पीड़ित होना पड़ता हैं उन रोगों के कारण लक्षण तथा चिकित्सा को लिखते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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