SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय । ४६७ करने के लिये यथाशक्य शीघ्र ही उपाय करना चाहिये, इस के अतिरिक्त जो देशी चिकित्सा पहिले लिख चुके हैं वह करनी चाहिये। जीर्णज्वर का वर्णन । कारण—जीर्णज्वर किसी विशेष कारण से उत्पन्न हुआ कोई नया बुखार नहीं है किन्तु नया बुखार नरम (मन्द) पड़ने के पीछे जो कुछ दिनों के बाद अर्थात् बारहवा दिन के बाद मन्दवेग से शरीर में रहता है उस को जीर्णज्वर कहते हैं, यह ज्वर ज्यों २ पुराना होता है त्यों २ मन्दवेगवाला होता है, इसी को अस्थिज्वर ( अस्थि अर्थात् हाड़ों में पहुँचा हुआ ज्वर) भी कहते हैं। लक्षण-इस ज्वर में मन्दवेगता (बुखार का वेग मन्द), शरीर में रूखापन, चमड़ीपर शोथ (सूजन), थोथर, अङ्गों का जकड़ना तथा कफ का होना, ये लक्षण होते हैं तथा ये लक्षण जब क्रम २ से बढ़ते जाते हैं तब वह जीर्णज्वर कष्टसाध्य हो जाता है। चिकित्सा-१-गिलोय का काढ़ा कर तथा उस में छोटीपीपल का चूर्ण तथा शहद मिलाकर कुछ दिन तक पीने से जीर्णज्वर मिट जाता है। २-खांसी, श्वास, पीनस तथा अरुचि के संग यदि जीर्णज्वर हो तो उस में गिलोय, भूरीगणी तथा सोंठ का काढ़ा बना कर उस में छोटी पीपल का चूर्ण मिला कर पीने से वह फायदा करता है । ३-हरी गिलोय को पानी में पीसकर तथा उस का रस निचोड़ कर उस में छोटी पीपल तथा शहद मिला कर पीने से जीर्णज्वर, कफ, खांसी, तिल्ली और अरुचि मिट जाती है। १-तात्पर्य यह है कि-बारह दिन के बाद तथा तीनों दोषों के द्विगुण ( दुगुने) दिनों के ( तेरह द्विगुण छब्बीस) अर्थात् छब्बीस दिनों के उपरान्त जो ज्वर शरीर में मन्दवेग से रहता है उस को जीर्णज्वर कहते हैं, परन्तु कोई आचार्य यह कहते है कि २१ दिन के उपरान्त मन्दवेग से रहनेवाला ज्वर जीर्णज्वर होता है ॥ २-यह ज्वर क्रम २ से सातों धातुओं में जाता है, अर्थात् पहिले रस में, फिर रक्त में, फिर मांस में, फिर भेद में, फिर हड्डी में, फिर मज्जा में और फिर शुक्रमें जाता है, इस ज्वर के मज्जा और शुक्र धातु में पहुँचने पर रोगी का बचना असम्भव हो जाता है ।। ३-जीर्ण ज्वर का एक मेद वातबलासकी है, उस में ये सब लक्षण पाये जाते हैं, वह ल्वर कष्टसाध्य माना जाता है ॥ ४-इस ज्वर में रोगी को लंघन नहीं करवाना चाहिये क्योंकि लंघन के कराने से ज्यों २ रोगी क्षीण होता जावेगा त्यों २ यह ज्वर बढ़ता चला जावेगा। ५-पीपल का चूर्ण अनुमान ६ मासे डालना चाहिये तथा काढ़े की दवा दो तोले लेकर ३२ तोले जल में औटाना चाहिये तथा ८ तोले जल शेष रखना चाहिये॥ ६-यह काथ अग्नि की मन्दता शूल और अर्दित ( लकबा) रोग को भी मिटाता है, इस काथ के विषय में आचार्यों की यह भी सम्मति है कि-ऊर्ध्वगत (नाभि से ऊपर के) रोग के निवारण के लिये इसे सायंकाल को देना चाहिये ( यह चक्रदत्त का मत है ), यदि रात्रिज्वर हो तो भी सायंकाल को देना चाहिये, दूसरी अवस्था में प्रातःकाल देना चाहिये तथा पित्तप्रधानस्थल में पीपल का चूर्ण न डाल कर उसके बदले में शहद डालना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy