SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५८ जैनसम्प्रदायशिक्षा। रोग से बच जाते थे, परन्तु वर्तमान में वह बात बहुत ही कम देखने में आती है, कहिये ऐसी दशा में इस रोग में फँस कर बेचारे गरीबों की क्या व्यवस्था हो सकती है ? इस पर भी आश्चर्य का विषय यह है कि उक्त रस वैद्यों के पास भी बने हुए शायद ही नहीं मिल सकते है, क्यों कि उन के बनाने में द्रव्य की तथा गुरुगमता की आवश्यकता है, और न ऐसे दयावान् वैद्य ही देखे जाते हैं कि ऐसी कीमती दवा गरीबों को मुफ्त में दे देवें।। पूर्व समय में ऊपर लिखे अनुसार यहां के धनाढ्य सेठ और साहूकार परमार्थ का विचार कर वैद्यों के द्वारा रसोंको बनवा कर रखते थे और समय आने पर अपने कुटुम्बियों सगे सम्बन्धियों और गरीबों को देते थे, परन्तु अब तो परमार्थ का विचार, श्रद्धा तथा दया के न होने से वह समय नहीं है, किन्तु अब तो यहां के धनाढ्य लोग अविद्या देवी के प्रसाद से व्याह शादी गांवसारणी और औसर आदि व्यर्थ कामों में हजारों रुपये अपनी तारीफ के लिये लगा देते हैं और दूसरे अविद्या देवी के उपासक जन भी उन्हीं कामों में व्यय करने से जब उन की तारीफ करते हैं तब वे बहुत ही खुश होते हैं, परन्तु विद्या देवी के उपासक विद्वान् जन ऐसे कामों में व्यय करने की कभी तारीफ नहीं कर सकते हैं, क्यों कि ऐसे व्यर्थ कार्यों में हजारों रुपयोंका व्यय कर देना शिष्टसम्मत ( विद्वानों की सम्मति के अनुकूल) नहीं है। पाठक गण ऊपर के लेख से मरुदेश के धनाढ्यों और सेठ साहूकारों की उदारता का परिचय अच्छे प्रकारसे पा गये होंगे, अब कहिये ऐसी दशा में इस देश के कल्याण की संभावना कैसे हो सकती है ? हां इस समय में हम मुर्शिदावाद के निवासी धनाढ्य और सेठ साहूकारों को धन्यवाद दिये विना नहीं रह सकते हैं, क्यों कि उन में अब भी ऊपर कही हुई बात कुछ २ देखी जाती है, अर्थात् उस देश में बड़े रसों में से मकरध्वज और साधारण रसों में विला. सगुटिको, ये दो रस प्रायः श्रीमानों के घरों में बने हुए तैयार रहते हैं और मौके सहवास रहता है, विद्वान् और ज्ञानवान् पुरुषों की संगति इन्हें घड़ी भर भी अच्छी नहीं लगती है, यदि कोई योग्य पुरुष इन के पास आकर बैठता है तो इन की आन्तरिक इच्छा यही रहती है कि कब यह पुरुष उठ कर जावे और हम उपहास ठट्ठा तथा दिल्लगी वाजी में अपने समय को वितावें, हँसी ठठ्ठा करना, स्त्रियों को देखना, उन की चर्चा करना, तास वा चोपड़ का खेलना, भंग आदि मादक द्रव्यों का सेवन करना, दूसरों की निन्दा करना तथा अमूल्य समय को व्यर्थ में नष्ट करना, यही इन का रातदिन का कार्य है, यह हम नहीं कहते हैं किमरुस्थल देशवासी सब ही धनाढ्य सेठ साहकार आदि ऐसे हैं क्योंकि यहां भी कितनेक विद्वान धर्मात्मा और विचारशील पुरुष देखे जाते हैं जो कि-दया और सद्भाव आदि गुणों से युक्त हैं, परन्तु अधिकांश में उन्हीं लोगों की संख्या है जिन का वर्णन हम अभी कर चुके हैं ।। १-इन को वहां की बोली में बाबू कहते हैं, इन के पुरुषजन वास्तव में मरुस्थलदेश के निवासी थे।॥ २-इस को वहां की देश भाषा में लक्खी विलासगुटिका कहते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy