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________________ चतुर्थ अध्याय। ४५७ चाहिये' अर्थात् रोगी को इस रोग में उत्कृष्टतया (अच्छे प्रकार से) बारह लंघन अवश्य करवा देने चाहियें, अर्थात् उक्त समय तक केवल ऊपर लिखे हुए जल और दवा के सहारे ही रोगी को रखना चाहिये, इस के बाद मूंग की दाल का, अरहर (तूर) की दाल का तथा खारक (छुहारे) का पानी देना चाहिये, जब खूब ( कड़क कर) भूख लगे तब दाल के पानी में भात को मिला कर थोड़ा २ देना चाहिये, इस के सेवन के २५ दिन बाद देश की खुराक के अनुसार रोटी और कुछ घी देना चाहिये। कर्णक नाम का सन्निपात तीन महीने का होता है, उस का खयाल उक्त समय तक वैद्य के वचन के अनुसार रखना चाहिये, इस बीच में रोगी को खाने को नहीं देना चाहिये, क्योंकि सन्निपात रोगी को पहिले ही खाने को देना विष के तुल्य असर करता है, इस रोग में यदि रोगी को दूध दिया जावे तो वह अवश्य ही मर जाता है। सन्निपात रोग काल के सदृश है इस लिये इस में सप्तस्सरण का पाठ और दान पुण्य आदि को भी अवश्य करना चाहिये, क्योंकि सन्निपात रोग के होने के बाद फिर उसी शरीर से इस संसार की हवा का प्राप्त होना मानो दूसरा जन्म लेना है। इस वर्तमान समय में विचार कर देखने से विदित होता है कि-अन्य देशों की अपेक्षा मरुस्थल देश में इस के चक्कर में आ कर बचनेवाले बहुत ही कम पुरुष होते हैं, इस का कारण व्यवहार नय की अपेक्षासे हम तो यही कहेंगे कि-उन को न तो ठीक तौर से ओषधि ही मिलती है और न उन की परिचर्या (सेवा) ही अच्छे प्रकार से की जाती है, बस इसी का यह परिणाम होता है कि-उन को मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। पूर्व समय में इस देशके निवासी धनाढ्य (अमीर ) सेठ और साहूकार आदि ऊपर कहे हुए रसों को विद्वान् वैद्यों के द्वारा बनवा कर सदा अपने घरों में रखते थे तथा अवसर ( मौका) पड़ने पर अपने कुटुम्ब सगे, सम्बन्धी और गरीब लोगों को देते थे, जिससे रोगियों को तत्काल लाभ पहुँचता था और इस भयंकर १-क्योंकि मल की शुद्धि और इन्द्रियों के निर्मल हुए विना आहार को देने से पुनः दोषों के अधिक कुपित हो जाने की सम्भावना होती है, सम्भावना क्या-दोष कुपित हो ही जाते हैं ।। २-उत्कृष्टतया बारह लंघनो के करवा देने से मल और कुपित दोषों का अच्छे प्रकार से पाचन हो जाता है, ऐसा होने से जठराग्नि में भी कुछ बल आ जाता है ।। ३-वर्तमान समय में तो यहां के ( मरुस्थल देश के ) निवासी धनाढ्य सेठ और साहूकार आदि ऐसे मलिन हृदय के हो रहे हैं कि इन के विषय में कुछ कहा नहीं जाता है किन्तु अन्तःकरण में ही महासन्ताप करना पड़ता है, इन के चरित्र और वर्ताव ऐसे निन्द्य हो रहे हैं कि जिन्हें देखकर दारुण दुःख उत्पन्न होता है, ये लोग धन पाकर ऐसे मदोन्मत्त हो रहे हैं कि इन को अपने कर्तव्य की कुछ भी सुधि बुधि नहीं है, रातदिन इन लोगों का कुत्सिताचारी दुर्जनों के साथ ३९ जै० सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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