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________________ द्वितीय अध्याय । अतिहिं दान तें बलि बँध्यो, दुर्योधन अति गर्व । अति छवि सीता हरण भो, अति तजिये थल सर्व ।। १२ । बहुत दान के कारण बलिराजा ( विष्णुकुमार मुनि के हाथ से ) बांधा गया, बहुत अहंकार के करने से दुर्योधन का नाश हुआ और बहुत छवि के कारण सीतः हरी गई. इस लिये अति को सब जगह छोड़ना चाहिये ॥ १२ ॥ क्षमा खड्ग जिन कर गयो, कहा करै खल कोय | विन ईंधन महि अनि परि, आपहि शीतल होय || १३ क्षमारूपी तलवार जिस के हाथ में है उस का कोई दुष्ट क्या कर सकता है, जैसे ईंधनरहित पृथिवी पर पड़ी हुई अग्नि आप ही बुझ जाती है ॥ १३ ॥ धर्मी राजा जो हुवै, अथवा पापी जार || जा होत तिहि देश की, राजा के अनुसार ॥ १४ ॥ राजा धर्मात्मा हो तो उस की प्रजा भी धर्म की रीति पर चलती है, राजा अधर्मी अथवा जार हो तो उस की प्रजा भी वैसी ही हो जाती है. तात्पर्य यह कि- जैसा राजा होता है उस देश की प्रजा भी वैसी हो जाती है ॥ १४ ॥ बुद्धिगम्य सब शास्त्र हैं ना पावे निरबुद्धि || नेत्रवन्त दीपक लख, नेत्रहीन नहिं सुद्धि ॥ १५ ॥ आपना बुद्धि ही शास्त्र पढ़कर भी ज्ञान का प्रकाश करती है, किन्तु बुद्धिहीन को शास्त्र भी कुछ लाभ नहीं पहुंचा सकता है, जैसे- दीपक नेत्रवाले के लिये चांदना करता है परन्तु अन्धे को कुछ भी लाभ नहीं पहुंचाता है ॥ १५ ॥ पण्डित पर उपदेश में, जग में होत अनेक ॥ चलै आप सतमार्ग में, सो लाखन में एक ॥। १६ ।। दूसरे को उपदेश देने में पण्डित ( चतुर ) संसार में अनेक देखे जाते हैं. परन्तु आप अच्छे मार्ग में चलनेवाला लाखों में एक देखा जाता है ॥ १६ ॥ नहीं देव पाषाण में, दारु मृत्तिका माँहि || देव भाव मांहीं बसै, भाव मूल सब माँहि तो पत्थर में देव है, न लकड़ी और मिट्टी में देव है, किन्तु देव केवल अपने भाव में है ( अर्थात् जिस देव पर अपना भाव होगा वैसा ही फल वह देव अपनी भक्ति के अनुसार दे सकेगा ) इसलिये सब में भाव ही मूल ( कारण ) समझना चाहिये ॥ १७ ॥ ॥ १७ ॥ १ - स की कथा त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्रादि ग्रन्थों में लिखी है । २ - इसी लिये "यथा राजा तथा प्रजा" यह लोकोक्ति भी संसारमें प्रसिद्ध है | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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