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________________ २६ जैनसम्प्रदायशिक्षा । सच्चे शास्त्र के सुनने से बुद्धिमान् जन धर्म को अच्छी तरह पहिचानते हैं, शास्त्र के श्रवण से खराब बुद्धि दूर होकर ज्ञान होता है और ज्ञान से मुक्ति अर्थात् अक्षय सुख मिलता है ॥ ५ ॥ नहिं हो जिस शास्त्र से, धर्म प्रीति वैराग । निकमा श्रम तहँ क्यों करो, वृथा लवै ज्यों काग ॥ ६ ॥ जिस शास्त्र के सुनने से न तो वैराग्य हो और न धर्म में ही प्रीति हो, ऐसे शास्त्र में व्यर्थ परिश्रम नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस का पढ़ना काकभाषा के -समान है ॥ ६ ॥ पैसा दे मैथुन करै, भोजन पर आधीन । खण्ड खण्ड पण्डित पनो, जान विडम्बन तीन ॥ ७ ॥ द्रव्य खर्च कर मैथुन करना, पराये वश होकर भोजन करना और अधूरे २ शास्त्र सीखना, इन तीन बातों से मनुष्य की विडम्बना ( फजीहत ) होती है ॥ ७ ॥ चरण एक वा अर्द्ध पद, नित्य सुभाषित सीख । मूरख हू पण्डित हुवै, नदियन सागर दीख ॥ ८ ॥ एक पाद अथवा TET पद भी प्रतिदिन सुभाषित का सीखने से मूर्ख भी पण्डित हो सकता है, जैसे देखो ! बहुत सी नदियों के इकट्ठे होने पर सागर भर जाता है ॥ ८ ॥ महा वृक्ष को सेविये, फल छाया जुत जोय । दैव कोप करि फल हरै, रुकै न छाया कोय ॥ ९॥ बड़े वृक्ष का सेवन करना चाहिये जो कि फल और छाया से युक्त हो, यदि देव के कोप से फल न मिले तो भी छाया को कौन रोक सकता है ॥ ९ ॥ गुरु छाया अरु तात की, बड़े भ्रात की छांह । राजमान छाया गहिर, दुर्लभ है जहँ ताँह ॥ १० ॥ गुरु की छाया, बाप की छाया, बड़े भाई की छाया और राजा से भादर निलनेरूप छाया ( ये छाया मिलने से जगत् में सब प्रकार से मनुष्य खुश रहता है परन्तु ) ये छाया हर जगह मिलनी कठिन हैं ॥ १० ॥ नदी तीर जो तरु लग्यो, विन अंकुश जो नारि । राजा मत्रीहीन जो, तिहुँ विनसे निरधारि ॥ ११ ॥ नदी के किनारे पर लगा हुआ वृक्ष, विना अंकुश की स्त्री, और मन्त्रीहीन राजा, ये तीनों प्रायः नष्ट हो जाते हैं ॥ ११ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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