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________________ ३९२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। का शरीर जैसा ऊपर से स्थूल दीखता है वैसी अन्दर ताकत नहीं होती है, निर्बलता, शोथ, जलवृद्धि और हाथी के समान पैरों का होना आदि इस प्रकृति के मुख्य रोग हैं, इस प्रकृतिवाले को तीखे और खारी पदार्थों पर अधिक प्रीति होती है तथा मीठे पदार्थों पर रुचि कम होती है। __ रक्तप्रधान धातु के मनुष्य-वात पित्त और कफ, इन तीन प्रकृतियों के सिवाय जिस मनुष्य में रक्त अधिक होता है उस के ये लक्षण हैं-शरीर की अपेक्षा शिर छोटा होता है, मुँह चपटा तथा चौकोन होता है, ललाट बड़ा तथा बहुतों का पीछे की ओर से ढालू होता है, छाती चौड़ी गम्भीर और लम्बी होती है, खड़े रहने से नाभि पेटकी सपाटी के साथ मिल जाती है अर्थात् न बाहर और न अन्दर दीखती है, चरबी थोड़ी होती है, शरीर पुष्ट तथा खून से भरा हुआ खूबसूरत होता है, बाल नरम पतले और आंटेदार होते हैं, चमड़ी करड़ी होती है तथा उस में से मांस के लोचे दिखलाई देते हैं, नाड़ी पूर्ण और ताकतवर होती है, दाँत मज़बूत तथा पीलापन लिये हुए होते हैं, पीने की चीज़ पर बहुत प्रीति होती है, पाचनशक्ति प्रबल होती है, मेहनत करने की शक्ति बहुत होती है, मानसिक वृत्ति कोमल तथा बुद्धि स्वाभाविक ( स्वभावसिद्ध) होती है, इस प्रकार का मनुष्य सहनशील; सन्तोषी, लोगों पर उपकार करनेवाला; बोलने में चतुर; सरलभाषी और साहसी होता है, वह हरदम न तो काम में लगा रहना चाहता है और न घर में बैठ कर समय को व्यर्थ में बिताना चाहता है, इस मनुष्य के दाह; फेफसे का वरम, नजला, दाहज्वर, खून का गिरना, कलेजे का रोग और फेफसे का रोग होना अधिक सम्भव होता है, वह धूप का सहन नहीं सकता है। ___ यद्यपि जुदी २ प्रकृति की पहिचान करना कठिन है, क्योंकि बहुत से मनुष्यों की मूल प्रकृति दो दो दोषों से मिली हुई भी होती है तथा दोनों दोषों के लक्षण भी मिले हुए होते हैं तथापि एक प्रकृति के लक्षणों का ज्ञान होने के बाद लक्षणों के द्वारा दूसरी प्रकृति का जान लेना कुछ भी कठिन नहीं है। यदि मनुष्य सूक्ष्म विचार कर देखे तो उस को यह भी मालूम हो जाता है कि-मेरी प्रकृति में अमुक दोष प्रधान है तथा अमुक दोष गौण अथवा कम है, इस प्रकार से जब प्रकृति की परीक्षा हो जाती है तब रोग की परीक्षा; उस का उपाय तथा पथ्यापथ्य का निर्णय आदि सब बातें सहज में बन सकती हैं, इस लिये वैद्य वा डाक्टर को सब से प्रथम प्रकृति की परीक्षा करनी चाहिये, क्योंकि यह अत्यावश्यक बात है। १ सर्व साधारण को प्रकृति की परीक्षा इस ग्रन्थ के अनुसार प्रथम करनी चाहिये, क्योंकि इस में प्रकृति के लक्षणों का अच्छे प्रकार से वर्णन किया है, देखो ! परिश्रम और यत्न करने से कठि. नसे कठिन कार्य भी हो जाते हैं, यदि लक्षणों के द्वारा प्रकृतिपरीक्षा में सन्देह रहे तो रोगीसे पूछ कर भी वैद्य वा डाक्टर परीक्षा कर सकते हैं ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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