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________________ ३५८ जैनसम्प्रदायशिक्षा। दोहा-उलटी गति गोपाल की, घट गई विश्वा बीस ॥ रामजनी को सात सौ, अभयराम को तीस ॥ १ ॥ प्रियवरो ! अब अन्त में आप से यही कहना है कि-यदि आप के विचार में भी ऊपर कहीं हुई सब बातें ठीक हों तो शीघ्र ही भारतसन्तान के उद्धार के लिये वेश्या के नाच कराने की प्रथा को अवश्य त्याग दीजिये, अन्यथा ( इस का त्याग न करने से ) सम्माते देने के द्वारा आप भी दोषी अवश्य होंगे, क्योंकि-किसी विषय का त्याग न करना सम्मति रूप ही है। भांड-वेइया के नृत्य के समान इस देश में भांडों के कौतुक कराने की भी प्रथा पड़ रही है, इस का भी कुछ वर्णन करना चाहते हैं, सुनिये-ज्योंही वेश्याओं के नाच से निश्चिन्त हुए त्योंही भांडों का लश्कर बर्सात के मेंडकों की भांति भांति २ को बोली बोलता हुआ निकल पड़ा, अब लगी तालियां बजने, कोई किसी की बुटी हुई खोपड़ी में चपत जमाता है, कोई गधे की भांति चिल्लाता है, एक कहता है कि मिया ओ! दूसरा कहता हे फुस, तात्पर्य यह है कि वे लोग अनेक प्रकार के कोलाहल मचाते हैं तथा ऐसी २ नकलें बनाते और सुनाते हैं कि लालाजी सेठजी और बाबू जी आदि की प्रतिष्ठा में पानी पड़ जाता है, ऐसे २ शब्दों का उच्चारण करते हैं कि जिन के लिखने में भी लेखनीको तो लजा आती है परन्तु उस सभा के बैठनेवाले जो सभ्य कहलाते है कछ भी लज्जा नहीं करते है, वरन प्रसन्न चित्त होकर हंसते २ अपना पेट फुलाते और उन्हें पारितोषिक प्रदान करते हैं, प्यारे सुजनो! इन्हीं व्यर्थ घातों के कारण भारत की सन्तानों का सत्यानाश मारा गया, इस लिये इन मिथ्या प्रपञ्चोंका शीघ्र ही त्याग कर दीजिये कि जिन के कारण इस देश का पटपड़ हो गया, कैसे पश्चात्ताप का स्थान है कि-जहां प्राचीन समय में प्रत्येक उत्सव में पण्डित जनों के सत्योपदेश होते थे वहां अव रण्डी तथा लोडों का नाच होता है तथा भांति २ की नकलें आदि तमाशे दिखलाये जाते है जिन से अशुभ कर्म बंधता है, क्योंकि धर्मशास्त्रों में लिखा है कि-नकल करने से तथा उसे देखर खुश होने से बहुत अशुभ कर्म बंधता है, हा शोक ! हा शोक ! : हा शोक !!! इस के सिवाय थोड़ा सा वृत्तान्त और भी सुन लीजिये और उसके सुननेसे यदि लज्जा प्राप्त हो तो उसे छोड़िये, वह यह है कि-विवाह आदि उत्सवों के स्मय स्त्रियों में बाज़ार, गली, कुंचे तथा घर में फूहर गालियों अथवा गीतों के गाने की निकृष्ट प्रथा अविद्या के कारण चल पड़ी है तथा जिस से गृहस्थाश्रम को अनेक हानियां पहुंच चुकी हैं और पहुंच रही हैं, उसे भी छोडना आवश्यक है, इस लिये आप को चाहिये कि इस का प्रबन्ध करें अर्थात् स्त्रियों को फूहर गालियां तथा गीत न गाने देवें, किन्तु जिन गीतों में मर्यादा के शब्द हों उन को कोमल वाणी से गाने दे, क्योंकि युवतियों का युवावस्था में निर्लज्ज शब्दोंका मुख से निकालना मानो बारूद की चिनगारी का छोड़ना है, इस के अतिरिक्त इस व्यवहार से स्त्रियों का स्वभाव भी बिगड़ जाता है, चित्त विकार से भर जाता है और मन विषय की तरफ दौडने लगता है फिर उस का साधना ( क बू में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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