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________________ चतुर्थ अध्याय । अतर और फुलेल की लपटें उस के पास से चली आती हैं बस इन्हीं सब बातों को देखकर उन विद्याहीन स्त्रियों के मन में एक ऐसा बुरा असर पड़ जाता है कि जिस का अन्तिम (आखिरी) फल यह होता है कि बहुधा वे भी उसी नगर में खुल्लमखुल्ला लज्जा को त्याग कर रण्डी बन कर गुलछर्रे उड़ाने लगती हैं और कोई २ रेल पर सवार होकर अन्य देशों में जाकर अपने मन की आशा को पूर्ण करती हैं, इस प्रकार रण्डी के नाच से गृहस्थों को अनेक प्रकार की हानियां पहुंचती हैं, इस के अतिरिक्त यह कैसी कुप्रथा चल रही है कि-जब दर्बाजो पर रण्डियां गार्ल गाती हैं और उधर से (घर की स्त्रियों के द्वारा) उस का जबाब होता है, देखिये ! उस समय कैसे २ अपशब्द बोले जाते हैं कि-जिन को सुन कर अन्यदेशीय लोगों का हँसते २ पेट फूल जाता है और वे कहते हैं कि इन्हों ने तो रण्डियों को भी मात कर दिया, धिक्कार है ऐसी सास आदि को । जो कि मनुष्यों के सम्मुख (सामने) ऐसे २ शब्दों का उच्चारण करें ! अथवा रण्डियों से इस प्रकार की गालियों को सुनकर भाई बन्धु माता और पिता आदि की किचित् भी लज्जा न करें और गृह के अन्दर घूघट बनाये रखकर तथा ऊंची आवाज से बात भो न कह कर अपने को परम लज्जावती प्रकट करें! ऐसी दशा में सच पूछो तो विवाह क्या मानं परदेबाली स्त्रियों (शर्म रखनेवाली स्त्रियों ) को जान बूझकर बेशर्म बनाना है, इस परभी तुर्रा यह है कि-खुश होकर रण्डियों को रुपया दिया जाता है (मानो घर की लज्जावती स्त्रियों को निर्लज्ज बनाने का पुरस्कार दिया जाता है), प्यारे सुजनो ! इन रण्डियों के नाच के ही कारण जब मनुष्य वेश्यागामी ( रण्डीबाज) हो जाते हैं तो वे अपने धर्म कर्म पर भी धता भेज देते हैं, प्रायः आपने देखा होगा कि जहां नाच होता है वहां दश षांच तो अवश्य मुंड ही जाते हैं, फिर जरा इस बात को भी सोचो कि जो रुपया उत्सवों और खुशियों में उन को दिया जाता है वे उस रुपये से बकराईद में जो कुछ करती हैं वह हत्या भी रुपया देनेवालों के ही शिर पर चढ़ती है, क्योंकि-जब रुपया देनेवालों को यह बात प्रकट है कि यदि इन के पास रुपया न होगा तो ये हाथ मलमल कर रह जायेंगी और हत्या आदि कुछ भी न कर सकेंगीफिर यह जानते हुए भी जो लोग उन्हें रुपया देते हैं तो मानो वे खुद ही उन से हत्या करवाते हैं, फिर ऐसी दशा में वह पाप रुपया देनेवालों के शिर पर क्यों न चढ़ेगा? अब कहिये कि यह कौन सी बुद्धिमानी है कि रुपया खर्च करना और पाप को शिर पर लेना ! प्यारे सुजनो ! इस वेश्या के नृत्य से विचार कर देखा जावे तो उभयलोक के सुख नष्ट होते है और इस के समान कोई कुत्सित प्रथा नहीं है, यद्यपि बहुत से लोग इस दुष्कर्म की हानियों को अच्छे प्रकार से जानते हैं तो भी इस को नहीं छोड़ते हैं, संसार की अनेक बदनामियों को शिर पर उठाते हैं तो भी इस से मुख नहीं मोड़ते हैं. इस करीति की जो कछ निकृष्टता है उस को दूसरे तो क्या बतलावें किन्तु वह नृत्य तथा उस का सर्व सामान ही बतलाता है, देखो! जब न य होता है तथा वैश्या गाती है तब यह उपदेश मिलता है किसवैया-शुभ काजको छांड कुकाज रचें, धन जात है व्यर्थ सदा तिन को। एक रांड बुलाय नचावत हैं, नहिं आवत लाज जरा तिनको ॥ मिरदंग भनै धृक् है धृक् है, सुरताल पुछ किन को किन को। तब उत्तर रांड बतावत है, धृक् है इन को इन को इन को ॥ १ ॥ एक समय का प्रसंग है कि किसी भाग्यवान् वैश्य के यहां एक ब्राह्मण ने भागवत की कथा बांची तब उस वैश्य ने कथा पर केवल तीस रुपये चढ़ाये परन्तु उसी भाग्यवान् के यहां जब पुत्र का विवाह हुआ तो उस ने वेश्या को बुलाई और उसे सात सौ रुपये दिये, उस समय उस ब्राह्मण ने कहा है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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