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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा । पांचवा प्रकरण । वाक्यविचार । पहिले कहचुके हैं कि-पदों के योग से वाक्य बनता है, इस में कारकस हित संज्ञा तथा क्रिया का होना अति आवश्यक है, वाक्य दो प्रकार के होते हैं-एक कर्तृप्रधान और दूसरा कर्मप्रधान ॥ १-जिसमें कर्ता प्रधान होता है उस वाक्य को कर्तृप्रधान कहते हैं, इस प्रकार के वाक्य में यद्यपि आवश्यकता के अनुसार सब ही कारक आ सकते हैं परन्तु इस में कर्ता और क्रिया का होना बहुत जरूरी है और यदि क्रिया सकर्मक हो तो उस के कर्म को भी अवश्य रखना चाहिये। २-वाक्य में पदोंकी योजना का क्रम यह है कि-वाक्य के आदि में कर्ता अन्त में क्रिया और शेष कारकों की आवश्यकता हो तो उन को बीच में रखना चाहिये । ३-पदों की योजना में इस बात का विचार रहना चाहिये कि सब पद ऐसे शुद्ध और यथास्थान पर, रखना चाहिये कि उन से अर्थ का सम्बन्ध टीक प्रतीत हो, क्योंकि पद असम्बद्ध होने से वाक्य का अर्थ ठीक न होगा और वह वाक्य अशुद्ध समझा जायगा ॥ ४-शुद्ध वाक्य का उदाहरण यह है कि-राजाने बाण से हरिण को मारा, इस कर्तृप्रधान वाक्य में राजा कर्ता, बाण करण, हरिण कर्म और मारा, यह सामान्य भूतकी क्रिया है. इस वाक्य में सब पद शुद्ध हैं और उन की योजना मी ठीक है, क्योंकि एक पद का दूसरे पद के साथ अन्वय है, इस लिये सम्पूर्ण वाक्य का 'राजा के बाण से हरिण का मारा जाना' यह अर्थ हुआ । ५-व्याकरण के अनुसार पदयोजना ठीक होने पर भी यदि पद असम्बद्ध हों तो वाक्य अशुद्ध माना जाता है, जैसे-वनिया वसूले से कपड़े को सीता है, इस वाक्य में यद्यपि सब पद कारकसहित शुद्ध हैं तथा उनकी योजना भी यथास्थान है परन्तु पद असम्बद्ध है अर्थात् एक पद का अर्थ दूसरे पद के साथ अर्थ के द्वारा मेल नहीं रखता है, इस कारण वाक्य का कुछ भी अर्थ नहीं निकलता है, इसलिये ऐसे वाक्यों को भी अशुद्ध कहते हैं । ६-जैसे कर्तृप्रधान वाक्य में कर्ता का होना आवश्यक है वैसे ही कर्मप्रधान वाक्य में कर्म का होना भी आवश्यक है, इस में कर्ता की विशेष आकांक्षा नहीं रहती है, इस कर्मप्रधान वाक्य में भी शेष कारक कर्म और क्रिया के बीच में यथास्थल रक्खे जाते हैं। ७-कर्मप्रधान वाक्य में यदि कर्ता के रखने की इच्छा हो तो करण कारक के चिन्ह 'से' के साथ लाना चाहिये, जैसे लड़के से फल खाया गया, गुरु से शिष्य पढ़ाया जाता है, इत्यादि । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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