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________________ चतुर्थ अध्याय। ३३१ रोग के कारण। इस बात का सर्वदा सब को अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि, कारण के विना रोग कदापि नहीं हो सकता है और रोग के कारण को ठीक २ जाने विना उस का अच्छे प्रकार से इलाज भी नहीं हो सकता है, इस बात को यदि आदमी अच्छी तरह समझ ले तो वह अभ्यन्तर (आन्तरिक) विचारशील होकर अपने रोग की परीक्षा को स्वयं ही कर सकता है और रोग की परीक्षा कर लेने के बाद उस का इलाज कर लेना भी स्वाधीन ही है, देखो! जब रोग का कारण निवृत्त हो जावेगा तब रोग कैसे रह सकता है ? क्योंकि अज्ञानता से होचुकी हुई भूल को ज्ञान से सुधारनेपर स्वाभाविक नियम ही अपना काम कर के फिर असली दशा में पहुंचा देता है, क्योंकि जीव का स्वरूप अव्याबाध (विशेष बाधा से रहित अर्थात् अव्याघात) है इसलिये शरीर में रोग के कारणों को रोकनेवाली स्वाभाविक शक्ति स्थित है, दूसरे-पुण्य के कृत्यों के करने से भी सातावेदनी कर्म में भी रोग को रोकने की स्वाभाविक शक्ति है, इस लिये रोग के अनेक कारण तो उद्यम के विना ही स्वाभाविक क्रिया से दूर हो जाते हैं, क्योंकि एक दूसरे के विरोधी होने से रोग और स्वाभाविक शक्ति का, शातावेदनी और अशातावेदनी कर्म का तथा निश्चयनय से जीव और कर्म का परस्पर शरीर में सदा झगड़ा रहता है, जब शातावेदनी कर्म की जीत होती है तब रोग को उत्पन्न करनेवाले कारणों का कुछ भी असर नहीं होता है किन्तु जब असातावेदनी कर्म की जीत होती है तब रोग के कारण अपना असर कर उसी समय रोग को उत्पन कर देते हैं, देखो! पुण्य के योग से बलवान् आदमी के शरीर में रोग के कारणों को रोकनेवाली सातावेदनी कर्म की शक्ति अधिक हो जाती है परन्तु निर्बल आदमी के शरीर में कम होती है इसलिये बलवान् आदमी बहुत ही कम तथा निर्बल आदमी वार २ बीमार होता है। ___ जीव की स्वाभाविक शक्ति ही शरीर में ऐसी है कि उस से रोगोत्पत्ति के पश्चात् उपाय के विना भी रोग दब जाता वा चला जाता है, इस के अनेक उदाहरण शगर में प्रायः देखे जाते हैं जैसे-आंख में जब कोई तृण आदि चला जाता है तब शीघ्र ही अपने आप पानी झर झर कर वह ( तृण आदि) बह कर बाहर निकल पड़ता है, यदि कभी रात में वह (तृण आदि)आंख में पड़ जाता है तो प्रातःकाल स्वयं ही कीचड़ (आंख के मैल) के साथ निकल जाता है और आंख विना इलाज किये ही अच्छी हो जाती है, कभी २ जब अधिक भोजन कर लेनेपर पेट में बोझा हो जाता है तथा दर्द होने लगता है तब प्रायः स्वयं ही (अपने आप ही) अर्थात् ओषधि के विना ही वमन और दस्त होकर वह ( बोझा और दर्द) मिट जाता है, १-क्योंकि रोग का निदान यदि ठीक रीति से समझ में आजावे तो रोग की चिकित्सा कर लेना कुछ भी कठिन बात नहीं है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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