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________________ ३३० जैनसम्प्रदायशिक्षा। हमारे पूर्वाचार्यों ने इन दोनों अवस्थाओं का वर्णन यथाशक्य अच्छा किया है. उन्हीं के लेखानुसार हम भी पाठकों को इन के स्वरूप का बोध कराने के लिये यथाशक्ति चेष्टा करते हैं-देखो ! नीरोगावस्था की पहिचान पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार से की है कि-सब अंगों का काम स्वाभाविक रीति से चलता रहे-अधीन फेफसे से श्वासोच्छास अच्छी तरह चलता रहे, होजरी तथा आँतों में खुराक अच्छी तरह पचता रहे, नसों में नियमानुसार रुधिर फिरता रहे, इत्यादि सः क्रियायें ठीक २ होती रहें, मल और मूत्र आदि की प्रवृत्ति नियमानुसार होती रहे तथा मन और इन्द्रियां स्वस्थ रह कर अपने २ कायों को नियमपूर्वक करते रहें इसी का नाम नीरोगावस्था है, तथा शरीर के अङ्ग स्वाभाविक रीति से अपना : काम न कर सकें अर्थात् श्वासोच्छ्रास में अड़चल मालूम हो वा दर्द हो, रुधिर की गति में विपमता हो, पाचन क्रिया में विघ्न हो, मन और इन्द्रियों में ग्लानि रहे, मल और मूत्र आदि वेगों की नियमानुसार प्रवृत्ति न हो, इसी प्रकार दूसरे अंग की यथोचित प्रवृत्ति न हो, इसी का नाम रोगावस्था है अर्थात् इन बातों से समः। टेना चाहिये कि आरोग्यता नहीं है किन्तु कोई न कोई रोग हुआ है, इसके सिवाय जब किसी आदमी के किनी अवयव में दर्द हो तो भी रोग का होना समझा जाता है. विशेप कर दाहयुक रोगों में, अथवा रोग की आरम्भावस्था में आदमी नरम हो जाता है, किसी प्रकार का दर्द उत्पन्न हो जाता है, शरीर के अवयव थक जाते हैं, शिर में दर्द होता है और भूख नहीं लगती है, जब गर. लक्षण मालूम पड़ें तो समझ लेना चाहिये कि कोई रोग होगया है, जब शरीर में रोग उत्पन्न हो जाय तब मनुष्य को उचित है कि-काम काज और परिश्रम के छोड़ कर रोग के हटाने की चेष्टा करे अर्थात् उस (रोग) को आगे न बढ़ने दे और उस के हेतु का निश्चय कर उस का योग्य उपाय करे, क्योंकि आरोग्यता का बना रहना ही जीव की स्वाभाविक स्थिति है और रोग का होना विकृति है, परन्तु सब ही जानते और मानते हैं कि असातावेदनी नामक कर्म का जब उदा होता है तब चाहे आदमी कितनी ही सम्भाल क्यों न रक्खे परन्तु उस से भूत हुए विना कदापि नहीं रहती है (अवश्य भूल होती है) किन्तु जबतक साता वेदन कर्म के योग से आदमी कुदरती नियम के अनुसार चलता है और जबतक शरी को साफ हवा पानी और खुराक का उपयोग मिलता है तबतक रोग के आने क' भय नहीं रहता है, यद्यपि आदमी का कभी न चूकना एक असम्भव बात है (मनुष्य चूके विना कदापि नहीं बच सकता है) तथापि यदि विचारशील आदर्म शरीर के नियमों को अच्छे प्रकार समझ कर उन्हीं के अनुसार वर्ताव करे तो बहुत से रोगों से अपने शरीर को बचा सकता है। १-जानने अर्थात् ज्ञान की बड़ी महिमा है क्योंकि ज्ञान से ही सब कुछ हो सकता है, देखो ! भगवतीसूत्र में लिखा है कि-"ज्ञानी जिन कर्म को श्वासोच्छास में तोड़ता है उस कर्म को अज्ञानी करोड़ वर्ष तक कष्ट भोग कर भी नहीं तोड़ सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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