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________________ चतुर्थ अध्याय । २८३ घट चुकी है तथा जठराग्नि मन्द हो गई है, इस दशा में जब जलकणों के सहित बरसाती हवा चलती है तथा मेंह बरसता है तब पुराने जल में नया जल मिलता है, ठंढे पानी के बरसने से शरीर की गर्मी भाफ रूप होकर पित्त को विगाड़ती है. जमीन की भाफ और खटासवाला पाक पित्त को बढ़ा कर वायु तथा कफ को दवाने का प्रयत्न करता है तथा बरसात का मैला पानी कफ को बढ़ा कर वायु और पित्त को दबाता है, इस प्रकार से इस ऋतु में तीनों दोषों का आपस में विरोध रहता है, इस लिये इस ऋतु में तीनों दोषों की शान्ति के लिये युक्तिपूर्वक आहार विहार करना चाहिये, इस का संक्षेप से वर्णन करते हैं: १-जठराग्नि को प्रदीप्त करनेवाले तथा सब दोषों को बराबर रखनेवाले खान पान का उपयोग करना चाहिये अर्थात् सब रस खाने चाहिये। २-यदि हो सके तो ऋतु के लगते ही हलकासा जुलाब ले लेना चाहिये । ३-खुराक मे वर्षभर का पुराना अन्न वर्त्तना चाहिये। ४-मूंग और अरहर की दाल का ओसावण बना कर उस में छाछ डाल कर पीना चाहिये, यह इस ऋतु में फायदेमन्द है। ५-दही में सञ्चल, सेंधा या साधा नमक डाल कर खाना बहुत अच्छा है, क्योंकि इस प्रकार से खाया हुआ दही इस ऋतु में वायु को शान्त करता है, अग्नि को प्रदीप्त करता है तथा इस प्रकार से खाया हुआ दही हेमन्त ऋतु में भी प-य है। ६-छाछ, नींबू और कच्चे आम आदि खट्टे पदार्थ भी अन्य ऋतुओं की अपेक्षा इस ऋतु में अधिक पथ्य हैं। ___७-इन वस्तुओं का उपयोग भी प्रकृति के अनुसार तथा परिमाण मुजब करने से लाभ होता है अन्यथा हानि होती है। ८-नदी तालाव और कुए के पानी में बरसात का मैला पानी मिल जाने से इन का जल पीने योग्य नहीं रहता है, इस लिये जिस कुए में वा कुण्ड में बरसाती पानी न मिलता हो उस का जल पीना चाहिये। ९-बरसात के दिनों में पापड़, काचरी और अचार आदि क्षारवाले पदार्थ तथा भुजिये, बड़े, चीलड़े, बेढ़ई, कचोड़ी आदि नेहवाले पदार्थ अधिक फायदेमन्द हैं, इस लिये इन का सेवन करना चाहिये। १०-इस ऋतु में नमक अधिक खाना चाहिये । १-बहुत से लोग मूर्खता के कारण गमी की ऋतु में दही खाना अच्छा समझते हैं, सो यह ठीक नहीं है, यद्यपि उक्त ऋतु में वह खाते समय तो ठंढा मालूम होता है परन्तु पचने के समय पित्त को बढ़ाकर उलटी अधिक गर्मी करता है, हां यदि इस ऋतु में दही खाया भी जावे तो मिश्री डाल कर युक्ति पूर्वक खाने से पित्त को शान्त करता है, किन्तु युक्ति के विना खाया हुआ दहो तो सब ही ऋतुओं में हानि करता है ॥ २-यह कल्पसूत्र की टीका में लिखा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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