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________________ २६८ जैनसम्प्रदायशिक्षा। १-एक तोला ब्राह्मी का दूध के साथ प्रति दिन सेवन करना चाहिये य’ घी के साथ चाटना चाहिये अथवा ब्राह्मी का घी बना कर पाट में या खुराक के साथ खाना चाहिये। २-कोरी मालकांगनी को वा उस के तेल को ऊपर लिखे अनुसार लेना चाहिये, मालकांगनी के तेल के निकालने की यह रीति है कि-२॥ रुपये भर मालकांगनी को लेकर उस को ऐसा कृटना चाहिये कि एक एक वीज के ो दो वा तीन तीन फाड़ हो जाये, पीछे एक या दो निनटतक तवेपर सेकना ( नना) चाहिये, इस के बाद शीघ्र ही सक कपड़े में डालकर दबाने के सांचे में देकर दवाना चाहिये, बस तेल निकल आयेगा, इस तेल की दो तीन बूडे नागरोल के कोरे (कल्थे और चूने के बिना) पान पर रखकर खानी चाहिय, इस का सेवन दिन में तीन वार करना चाहिये, यदि तेल न निकल सके तो पांच २ वीज ो पान के साथ खाने चाहिये। ___ फासफर्म से मिली हुई हर एक डाक्टरी दवा भी बुद्धि तथा मगज़ के लिये फायदेमन्द होती है। रोगी के ग्वाने योग्य खराक । पश्चिमीय विद्वानों ने इस सिद्धान्त का निश्नन, किया है कि-सब प्रकार की खुराक की अपेक्षा साबूदाना, आरारूट और टापीओ का, ये तीन चीजें व से हलकी और सहज में पचनेवाली हैं अर्थात् जिस रोगमें पाचनशक्ति बिगड़ गई हो उस में इन तीनों वस्तुओं में से किसी वस्तु का खाना बहुत ही फायदेमन्द है । साबूदाना को पानी वा दूध में मिजा कर तथा आवश्यकता हो तो थोड़ी सी मिश्री डाल कर रोगी को पिलाना चाहिये, इस के बनाने की उत्तस रीति यह है कि-आधे दृध और पानी को पतीली या किली कलईदार वर्जन में टाल ह: चूल्हे पर चढ़ा देना चाहिये, जब वह अदहन के समान उबलने दो लब उस में सावदाना को डालकर ढक देना चाहिये, जब पानी का भाग-: जावे सिदा मात्र शेप रह जावे तब उतार कर थोड़ी सी भिश्री डालकर खान लिये। साबूदाना की अपेक्षा चावल यद्यपि पचने में दूसरे दी है परन्तु सः चूदाना की अपेक्षा पोपण का तत्त्व चावलों में अधिक है इसलिये रुचि अनुसार बीमार को वर्ष के पीछे से तीन वर्ष के भीतर का पुराना बाबर ना चाहिये, अर्थात् वर्षभर के भीतर का और तीन वर्ष के बाद का (पांच छः वर्षों का) भी चावल नहीं देना चाहिये। __आधे दृध तथा आधे पानी में सिजाया हुआ भात वहुत पुनिकारक होता है, यद्यपि केवल दृध में सिजायाहुआ भात पूर्व की अपेक्षा भी अधिक पुष्टिका क तो होता है परन्तु वह बीमार और निर्बल आदमी को पचता नहीं है इस लिये बीमार १-अथात् मायदाना की अपेक्षा चावलर में हजम होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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