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________________ चतुर्थ अध्याय । २६१ है कि-एक ही पदार्थ रसायनिक संयोग के द्वारा अर्थात् दूसरी चीज़ों के मिलने से (जिस को तन्त्र कहते हैं उस से) भिन्न गुणवाला हो जाता है अर्थात् उक्त संयोग से पदार्थों का धर्म बदल कर पथ्य और कुपथ्य के सिवाय एक तीसरा ही गुण प्रकट हो जाता है, इसलिये जिन लोगों को पदार्थों के हानिकारक होने वा न होने का ठीक ज्ञान नहीं है उन के लिये सीधा और अच्छा मार्ग यही है कि वैद्यक विद्या की आज्ञा के अनुसार चल कर पदार्थों को उपयोग में लावें, देखो! शहद अच्छा पदार्थ है अर्थात् त्रिदोष को हरता है परन्तु वही गर्म पानी के साथ या किसी अत्युष्ण वस्तु के साथ या गर्म तासीरवाली वस्तु के साथ अथवा सन्निपात ज्वर में देने से हानि करता है, एवं समान परिमाण में घृत के साथ मिलने से विष के समान असर करता है, दूध पथ्य पदार्थ है तो भी मूली, मूंग, क्षार, नमक तथा एरण्ड के सिवाय बाकी तेलों के साथ खाया जाने से अवश्य नुक्सान करता है। वर्तनों के योग से भी वस्तुओं के गुणों में अन्तर हो जाता है, जैसे-तांबे और पीतल के वर्तन से खटाई तथा खीर का गुण बदल जाता है, कांसे के वर्तन में घी का गुण बदल जाता है अर्थात् थोड़ी देर तक ही कांसे के वर्तन में रहने से घी नुकसान करता है, यदि सात दिन तक घी कांसे के वर्तन में पड़ा रहे और वह वाया जावे तो वह प्राणी को प्राणान्ततक कष्ट पहुँचाता है। दूध के साथ खट्टे फल, गुड़, दही और खिचड़ी आदि के खाने से भी नुक्सान होता है। प्रिय पाठकगण! थोड़ा सा विचार करो! सर्वज्ञ भगवान् ने संयोगी विपों का वर्णन वैद्यक शास्त्र में किया है उस (शास्त्र) के पढ़ने और सुनने के विना मनुष्यों को इन सब बातों का ज्ञान कैसे हो सकता है ? यही वर्णन सूत्र प्रकीर्णों में भी किया गया है तथा वहां कुपथ्य पदार्थों को ही अभक्ष्य ठहराया है। र हे हुए कुपथ्यों का फल शीघ्र नहीं मिलता है किन्तु जब अपने २ कार... पाकर बहुत से दोष इकट्ठे हो जाते हैं तब वह कुपथ्य दूसरे ही रूप में दिखाई देता है अर्थात् पूर्वकृत कुपथ्य से उत्पन्न हुए फल के कारण को उस समय लोग नहीं समझ सकते हैं, इस लिये कुपथ्य तथा संयोग विरुद्ध पदार्थों से सदा बचना चाहिये, क्योंकि इन के सेवन से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । सामान्य पथ्यापथ्य आहार । पथ्यआहार। . कुपथ्यआहार। पुराने चावल, जौं, गेहूँ, मूंग, अरहर उड़द, चंवला, वाल, मौठ, मटर, (तूर ), चना और देशी बाजरी, (गर्म ज्वार, मका, ककड़ी, काचर, खरबूजा, बाजरी थोड़ी), घी, दूध, मक्खन, गुवारफली, कोला, मूलीके पत्ते, अमछाछ. शहद, मिश्री, बूरा, बतासा, रूद, सीताफल, कटहल, करोंदा, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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