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________________ २३२ जैनसम्प्रदायशिक्षा | अब इक्षुविकारों का पृथक् पृथक् संक्षेप से वर्णन करते हैं: फाणित - कुछ कुछ गाढ़ा और अधिक भाग जिस का पतला हो ऐसे ईख के पके हुए रस को फाणित अर्थात् राब कहते हैं, यह भारी, अभिष्यन्दी, बृंहण, कफकर्त्ता तथा शुक्र को उत्पन्न करता है, इस का सेवन करने से वात, पित्त, आम, मूत्र के विकार और बस्तिदोष शान्त हो जाते हैं । मत्स्यण्डी - किञ्चित् द्रवयुक्त पक्व तथा गाढ़े ईखके रस को मत्स्यण्डी कहते हैं, यह - भेदक, बलकारक, हलकी, वातपित्तनाशक, मधुर, बृंहण, वृष्य और रक्तदोषनाशक है । गुडेई-नया गुड़ गर्म तथा भारी होता है, रक्तविकार तथा पित्तविकार में हानि करता है, पुराना गुड़ ( एक वर्ष के पीछे से तीन वर्ष तक का ) बहुत अच्छा होता है, क्योंकि यह हलका अग्निदीपक और रसायनरूप है, र्फ केपन, पाण्डुरोग, पित्त, त्रिदोष और प्रमेह को मिटाता है तथा बलकारक है, दवाओं में पुराना गुड़ ही काम में आता है, शहद के न होने पर उस के बदले में पुराना गुड़ ही काम दे जाता है, तीन वर्ष के पुराने गुड़ के साथ अदरख के खाने से कफ का रोग मिट जाता है, हरड़ के साथ इसे खाने से पित्त का रोग मिटता है, सोंठ के साथ खाने से वायु का नाश करता है 1 तीन वर्ष का पुराना गुड़ गुल्म ( गीला ) बवासीर, अरुचि, क्षय, कास ( खांसी), छाती का घाव, क्षीणता और पाण्डु आदि रोगों में भिन्न २ अनुपानों के साथ सेवन करने से फायदा करता है, परन्तु ऊपर लिखे रोगों पर नये गुड़ का सेवन करने से वह कफ, श्वास, खांसी, कृमि तथा दाह को पैदा करता है 1 पित्त की प्रकृतिवाले को नया गुड़ कभी नहीं खाना चाहिये । चूरमा लापसी और सीरा आदि के बनाने में ग्रामीण लोग गुड़ का बहुत उपयोग करते हैं, एवं मजूर लोग भी अपनी थकावट उतारने के लिये रोर्ट आदि के साथ हमेशा गुड़ खाया करते हैं, परन्तु यह गुड़ कम एक वर्ष का तो पुराना अवश्य होना ही चाहिये नहीं तो आरोग्यता में बाधा पहुँचाये विना कदापि न रहेगा । गुड़ के चुरमा और लापसी आदि पदार्थों में घी के अधिक होने से गुड़ अधिक गर्मी नहीं करता है । १ - देखो इस भारतभूमि में ईस ( सांठा ) भी एक अतिश्रेष्ठ पदार्थ है - जिस के रस से हृदयविकार दूर होकर तथा यकृत् का संशोधन होकर पाचनशक्ति की वृद्धि होती फिर देखो ! इसी के रस से गुड़ बनता है जो कि अत्यन्त उपयोगी पदार्थ है, क्योंकि गुड़ ही के सहारे से सब प्रकार के मधुर पदार्थ बनाये जाते हैं । २-तीन वर्ष के पीछे उड़ का गुण कम हो जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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