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________________ चतुर्थ अध्याय । २३१ शतपोरक-इस के गुण कोशक ईख के समान है, विशेषता इस में केवल इतनी है कि-यह किञ्चित् उष्ण क्षारयुक्त और वातनाशक है। तापसेक्षु-मृदु, मधुर, कफ को कुपित करनेवाला, तृप्तिकारक, रुचिप्रद, वृष्य और बलकारक है। काण्डेक्षु-इस के गुण तापसेक्षु के समान हैं, केवल इस में इतनी विशेषता है कि यह वायु को कुपित करता है। सूचीपत्र, नीलपौर, नेपाल ओर दीर्घपत्रक-ये चारों प्रकार के पौंडे वातकर्ता, कफपित्तनाशक, कषैले और दाहकारी हैं। इस के सिवाय अवस्थाभेद से भी ईख के गुणों में भेद होता है अर्थात् बाल (छोटी) ईख-कफकारी, मेदवर्धक तथा प्रमेहनाशक है, युवा (जवान) ईख-वायुनाशक, स्वादु, कुछ तीक्ष्ण और पित्तनाशक है, तथा वृद्ध (पुरानी) ईख-रुधिरनाशक, वणनाशक, बलकर्ता और वीर्योत्पादक है। ईख का मूलभाग अत्यन्त मधुर रसयुक्त, मध्यभाग मीठा तथा ऊपरी भाग नुनखरा (नमकीनरस से युक्त) होता है। दाँतों से चबा कर चूसी हुई ईख रक्तपित्तनाशक, खांड़ के समान वीर्यवाला, अविदाही ( दाह को न करनेवाला) तथा कफकारी है। सर्वभाग से युक्त कोल्हू में दबाई हुई ईख का रस जन्तु और मैल आदि के संसर्ग से विकृत होता है, एवं उत्क रस बहुत काल पर्यन्त रक्खा रहने से अत्यन्त विकृत हो जाता है इस लिये उस को उपयोगमें नहीं लाना चाहिये, क्योंकि उपयोग में लाया हुआ वह रस दाह करता है, मल और मूत्र को रोकता है, तथा पचने में भी भारी होता है। ईख का बासा रस भी बिगड़ जाता है, यह रस स्वाद में खट्टा, वातनाशक, भारी, पित्तकफकारक, सुखानेवाला दस्तावर तथा मूत्रकारक होता है । __ अग्निपर पकाया हुआ ईख का रस भारी, स्निग्ध, तीक्ष्ण, वातकफनाशक, गोलानाशक और कुछ पित्तकारक होता है। इक्षुविकार अर्थात् गुड़ आदि पदार्थ भारी, मधुर, बलकारक, खिग्ध, वातनाशक, दस्तावर, वृष्य, मोहनाशक, शीतल, बृंहण और विषनाशक होते हैं, इक्षुविकारों का सेवन करने से तृषा, दाह, मूर्छा और रक्तपित्त नष्ट हो जाते हैं। १-शतपोरक अर्थात् बहुत गांठोंवाला । २-इस को चिनियाबम्बई कहते हैं । ३-सूचीपत्र उस को कहते हैं जिस के पत्ते बहुत बारीक होते हैं; नीलपौर उस को कहते हैं जिस की गांठे नीले रंग की होती हैं। नेपाल उस को कहते हैं जो नेपाल देश में उत्पन्न होता है; तथा. दीर्घपत्र उसे कहते हैं जिस के पत्ते बहुत लम्बे होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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