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________________ ६ संख्या शुद्ध उच्चारण । १४ अनुनासिकाः ङ जण न माः ॥ १५ अन्तस्था यरलवाः ॥ १.६ ऊष्माणः श ष स हाः ॥ १७ अः इति विसर्जनीयः ॥ १८ क इति जिह्वामू लीयः ॥ १९ प इत्युपध्मानीयः ॥ २० अं इत्यनुस्वारः ॥ २१ पूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम् ॥ २२ अस्वरं व्यञ्जनम् २३ परवर्णेन योजयेत् ॥ जैनसम्प्रदायशिक्षा । इति सन्धिसूत्रतः प्रथम वरणः ॥ अशुद्ध उच्चारण । अनुनासका न नानैरी नमा ॥ अंतस्था जीरे लवा ॥ उकमणा संखोसाहा ॥ आईतीबी सरजनीयो ॥ काईती जीबामूलियो ॥ पाइती पदमानीयो ॥ आयोअंत नसुंवारो ॥ पूर्वी फलियोरथोपालपहुं २ ॥ बिणज्यो नामी सरांबरुं ॥ बरण भने ॥ अनेत करम्या बिसलप जेतू ॥ २४ अनतिक्रमयन् विश्ले- लखोपचायरा येत् ॥ २५ लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धि: ॥ दुर्घण संघियेती ॥ सेती सुतरता प्रथमी संघी समापताः ॥ अर्थविवरण | ङ, ञ, ण, न, म, ये वर्ण अनुनासिक हैं ॥ य, र, ल, व, को अन्तःस्थ कहते हैं ॥ श, ष, स, ह, इनको ऊष्म कहते हैं ॥ अः यहां विसर्जनीय है ॥ क को जिह्वामूलीय कहते हैं ॥ इस को उपध्मानीय कहते हैं ॥ अं यहां अनुस्वार है ॥ पूर्व और परमें अर्थकी उपलब्धि होनेपर पद माना जाता है ॥ स्वररहितवर्णको व्यञ्जन कहते है ॥ व्यञ्जन को अगले वर्ण में जोड़ देना चाहिये ॥ अतिक्रम न करके संयो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ग करना चाहिये ॥ शेष संज्ञाओं की सिद्धि लोक की रीति से सम झनी चाहिये ॥ यह सन्धिसूत्रक्रम से प्रथम चरण समाप्त हुआ। अब प्रथम सन्धिका विवरण यह है: प्रथमसूत्र --- वर्ण समाम्नाय अर्थात् वर्णसमूह यह है-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लु, ल, ए, ऐ, ओ, औ, ॥ १ - स्वरों में अं, अः, छोड़ दिया गया है, क्योंकि वह अनुस्वार और विसर्ग कोटि में माना गया है । www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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