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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा । का भय मानो । तब हम जावेंगे। I खेल मत खेलो। हँसना बुरा है । सब को जीव प्यारा है । तुम केवल बैठे रहते हो । अपने अध्यापक से पढ़ो। हमारी पुस्तक लाओ । अन्दर मत जाओ । त्रेसठ का संवत् है । पण्डित का कहना मानो । यत्रालय छापखाने का नाम है । विद्यालय पाठशाला का नाम है । औषधालय दवाघर का नाम है । कालचक्र सदा फिरता है । इस समय अंग्रेज़ों का राज्य है । बुरी तरह से बैठना उचित नहीं है । मीठे वचन बोला करो । बेफायदा बकना बुरा है। पानी छान के पिया करो । दुष्ट की संगति मत करो । खूब परिश्रम किया करो । हिंसा से बड़ा पाप होता है । वचन विचार कर बोलो । मिठाई बहुत मत खाओ । घमंड करना बहुत बुरा है । व्यायाम कसरत को कहते हैं । तस्कर चोर का नाम है । यह छोटा सा ग्राम है । सब का कभी अन्त है । दृढ़ मज़बूत को कहते हैं । स्पर्शेन्द्रिय त्वचा को कहते हैं । घ्राणेन्द्रिय नाक को कहते हैं। चक्षु नाम आंख का है। कर्ण वा श्रोत्र कान को कहते हैं। श्रद्धा से शास्त्र को पढ़ो। शास्त्र का सुनना भी फल देता है । संस्कृत में अव घोड़े को कहते हैं । कृष्ण काले का नाम है । गृह घर का नाम है । शरीर में श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियां होती हैं । मनकी शुद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है । कुछ आवश्यक शिक्षायें । जहां तक हो सके विश्वासपात्र बनो । झूठे का कभी विश्वास मत करो । शपथ खानेवाला प्रायः झूठा होता है । जो तुह्मारा विश्वास करता है उसे कभी धोखा मत दो। माता पिता और गुरु की सेवा से बढ़ कर दूसरा धर्म नहीं है । राज्य के नियमों के अनुसार सर्वदा वर्ताव करो । सबेरे जल्दी उठो और रात को जल्दी सोओ। अजीर्ण में भोजन करना विष के तुल्य हानि पहुंचाता है । दया धर्म का मुख्य अंग है, इस लिये निर्दय पुरुष कभी धर्मात्मा नहीं बन सकता है । प्रतिदिन कुछ विद्याभ्यास तथा अच्छा कार्य करो । साधु महात्माओं का संग सदैव किया करो । जीवदान और विद्यादान सब दानों से बढ़ कर हैं । कभी किसी के जीव को मत दुखाओ। सब काम ठीक समय पर किया करो । स्वामी को सदैव प्रसन्न रखने का यत्न करो । विद्या मनुष्य की आंख खोल देती है । सज्जन विपतिमें भी सरीखे रहते हैं, देखो जलाने पर कपूर और भी सुगन्धि देता है, तथा सूर्य रक्त ही उदय होता है और रक्त ही अस्त होता है । ब्राह्मण, विद्वान्, कवि, मित्र, पड़ोसी, राजा, गुरु, स्त्री, इन से कभी विरोध मत करो । मण्डली में बैठकर किसी स्वादिष्ट पदार्थ को अकेले मत खाओ। विना जाने जल में कभी प्रवेश मत करो । नख आदि को दाँतसे कभी मत काटो । उत्तर की तरफ सिर करके मत सोओ । विद्वान् को राजा से भी बड़ा समझो । एकता से बहुत लाभ होते हैं इस के लिये चेष्टा करो । प्राण जाने पर भी धर्म को मत छोड़ो || यह प्रथम अध्याय का वर्णसमाम्नाय नामक प्रथम प्रकरण समाप्त हुआ ॥ ४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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