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________________ चतुर्थ अध्याय । समझना चाहिये, क्योंकि देखो। खुराक के खाये विना मनुष्य कई दिन तक जीवित रह सकता है, एवं पानी के पिये विना भी कई घण्टे तक जीवित रह सकता है, परन्तु हवा के विना थोड़ी देर तक भी जीवित रहना अति कठिन है, अति कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है, इस से सिद्ध है कि-उक्त तीनों पदार्थों में से वा सब से अधिक उपयोगी पदार्थ है, उस से दूसरे दर्जे पर पानी है और तीसरे इंजे पर खुराक है, परन्तु इस विषय में यह भी स्मरण रहना चाहिये किइन तीनों में से यदि एक पदार्थ उपस्थित न हो तो शेष दो पदार्थों में से कोई भी उस पदार्थ का काम नहीं दे सकता है अर्थात् केवल हवा से वा केवल पानी से अथवा केवल खुराक से अथवा इन तीनों में से किन्हीं भी दो पदार्थों से जीवन कायम नहीं रह सकता है, तात्पर्य यह है कि इन तीनों संयुक्तों से ही जीवन स्थिर रह सकता है तथा यह भी स्मरण रहना चाहिये कि-समय आने पर मृ यु के साधन भी इन्हीं तीनों से प्रकट हो जाते हैं, क्योंकि देखो ! जो पदार्थ अपने स्वाभाविक रूप में रह कर शरीर के लिये उपयोगी (लाभदायक) होता. वही पदार्थ विकृत होने पर अथवा आवश्यकता के परिमाण से न्यूनाधिक होने पर अथवा प्रकृति के अनुकूल न होने पर शरीर के लिये अनुपयोगी और हानिकारक हो जाता है, इत्यादि अनेक बातों का ज्ञान शरीरसंरक्षण में ही अन्तगत है, इस लिये अब क्रम से इन का संक्षेप से वर्णन किया जाता है:___ उर तीनों पदार्थों में से सब से प्रथम तथा परम आवश्यक पदार्थ हवा है, यह पाइले ही लिख चुके हैं, अब इस के विषय में आवश्यक बातों का वर्णन करते : जगत् में सब जीव आस पास की हवा लेते हैं, वह (हवा) जब बाहर निकलकर पुनः प्रवेश नहीं करती है-बस उसी को मृत्यु, मौत, देहान्त, प्राणान्त, अन्तकाल और अन्तक्रिया आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। परि ले लिख चुके हैं कि-जीवन के आधाररूप तीनो पदार्थों में से जीवन के रक्षण का मुख्य आधार हवा है, वह हवा यद्यपि अपनी दृष्टि से नहीं दीख पड़ती है तथा जब वह स्थिर हो जाती है तो उस का मुख्य गुण स्पर्श भी नहीं मालूम होता है परन्तु जब वह वेग से चलती है और वृक्षकम्पन आदि जो २ कार्य करती है वह पत्र कार्य नेत्रों के द्वारा भी स्पष्ट देखा जाता है किन्तु उस का ज्ञान मुख्यतया स्पर्श के द्वारा ही होता है । देखा ! यह समस्त जगत् पवन महासागर से आच्छादित ( ढंका हुआ ) है, और उस पवन महासागर को डाक्टर तथा अर्वाचीन विद्वान् कम से कम सौ मील गम्भीर (गहिरा) मानते हैं, परन्तु प्राचीन आचार्य तो उस को चौदह राजलोक के आसपास घनोदधि, घनवात और तनुवात रूपमें मानते हैं अर्थात् उन का सिद्धान्त यह है कि-हवा और पानी के ही आधारपर ये चौदह राजलोक स्थित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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