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________________ १५० नैनसम्प्रदायशिक्षा। भी वैसा ही व्यवहार सीख लेते और वैसा ही वर्ताव करने लगते हैं, हां यह दूसरी बात है कि-माता पिता आदि का ऐसा अनुपयुक्त व्यवहार होने पर भी कोई २ पुण्यवान् सन्तान सब कुटुम्बवालों से छंट कर सत्सङ्गति के द्वारा उत्तम क्रिया और सब उपयोगी नियमों को सीख लेते हैं और सद्वयवहार में ही प्रवृत्त रहते हैं, तथा द्रव्यवान् विनयवान् और दानी निकल आते हैं, यह केवल स्थाद्वाद है, किन्तु लोकव्यवहार के अनुसार तो मनुष्य को सर्वदा श्रेष्ठ कार्य और सद्गुणों के लिये उद्यम करना और उन को सीख कर उन्हीं के अनुसार वर्ताव करना ही परम उचित है। बहुत से लोग ऐसे भी देखे जाते हैं कि-वे पथ्यापथ्य को न जानने के कारण बीमार हो जाते हैं, क्योंकि-यह तो निश्चय ही है कि-जान बूझ कर बीमार शायद कोई ही होता है किन्तु अज्ञान से ही लोग रोगी बनते हैं, इस में कारण यही है कि-ज्ञान से चलने में जीव बलवान् है और अज्ञान से चलने में कर्म बलवान् है, इस लिये मनुष्यों को ज्ञान से ही सिद्धि प्राप्त होती है, दे वो । सदाचरणरूप सुखदायी योग को पथ्य और असदाचरणरूप दुःखदायी योग को कुपथ्य कहते हैं, इन दोनों योगों को अच्छे प्रकार से समझ लेना यह तो ज्ञान है और उसी के अनुकूल चलना यह क्रिया है, बस इन्हीं दोनों के योग से अर्थात् ज्ञान और क्रिया के योग से मोक्ष (दुःखकी निवृत्ति) होता है, यह विषय संसारपक्ष और मुक्तिपक्ष दोनों में समान ही समझना चाहिये, देखो। जिस पुरुष ने अपने आत्मा का भला चाहा है उस ने मानो सब जगत् का भला गाहा, इसी प्रकार जिस ने अपने शरीर के संरक्षण का नियम पाला मानो उस ने दूसरे को भी उसी नियम का पालन कराया, क्योंकि पहिले लिख चुके हैं कि-माता पिता आदि वृद्धजनों के मार्ग पर ही उन की सन्तति प्रायः चलती है, इस लिवे प्रत्येक मनुष्यका कर्त्तव्य है कि-अपनी और अपनी सन्तति की शरीरसंरक्षा के नियमों को वैद्यक शास्त्र आदि के द्वारा भली भाँति जान कर उन्हीं के अनुसार वर्ताव कर आरोग्य लाभके द्वारा मनुष्यजन्म के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चारों फलों को प्राप्त करे। यह चतुर्थ अध्याय का-वैद्यक शास्त्र की उपयोगिता नामकं प्रथम प्रकरण समाप्त हुआ। द्वितीय प्रकरण। वायुवर्णन। इस संसार में हवा, पानी और खुराक, येही तीन पदार्थ जीवन के मुख्य भाधाररूप हैं, परन्तु इन में से भी पिछले २ की अपेक्षा पूर्व २ को बलवान् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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