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________________ तृतीय अध्याय । में गर्मी उत्पन्न करनेवाले पौष्टिक पदार्थ खाने को देना चाहिये, क्योंकि उस समय शरीर में गर्मी पैदा करने की बहुत आवश्यकता है. उक्त ऋतु में यदि शरीर में गर्मी कम होवे तो तनदुरुस्ती बिगड़ जाती है इसलिये उक्त तुक्र में शरीर में उप्णता कायम रहने के लिये उपाय करना चाहिये, बालक की भूख को कभी मारना नहीं चाहिये क्योंकि भूख का समय विता देने से मन्दाग्नि आदि रोग हो जाते हैं, इसलिये यही उचित है कि नियम के अनुसार नियत किये हुए समय पर जितनी और जो हजम हो सके उतनी और वही खूब परिपक्व (पकी हुई ) खुराक खाने को देना चाहिये। इस जीवनयात्रा के निर्वाह के लिये शरीर को जिन २ तत्त्वों की आवश्यकता है वे सब तत्त्व एक ही प्रकार की खुराक में से नहीं मिल सकते हैं, इसलिये सर्वदा एक ही प्रकार की खुराक न देकर भिन्न २ प्रकार की खुराक देते रहना चाहिये, एक ही प्रकार की खुराक देने से शरीर को आवश्यक तत्त्व भी नहीं मिलते हैं तथा पाचनशक्ति में भी खराबी पड़ जाती है, जिस खुराक पर बालक की रुचि न हो उसके खाने के लिये आग्रह नहीं करना चाहिये, बालक को खुराक देनेमें आधा घंटा लगाना चाहिये अर्थात् धीरे २ चवा २ के उसे खिलाना चाहिये और धीरे २ चाव २ के खाने की उस की आदत भी डालना चाहिये, किन्तु शीघ्रता से उसे नहीं खिलाना चाहिये और न खाने देना चाहिये, गर्मो वा धूप आदि में से आने के वाद अथवा थकने के बाद कुछ विश्राम ले लेवे तब उसे खाने को देना चाहिये, खाते समय उसे न तो हँसने और न बातें करने देना चाहिने क्योंकि ऐसा करने से कभी २ ग्रास गले में अटक कर बहुत हानि पहुँचाता है, सो उठने के पीछे तीन घण्टे के बाद और ऊँघने के पीछे एक घण्टे के बाद खुराक देनी चाहिये, इसी प्रकार खानेके पीछे यदि आवश्यकता हो तो एक घण्टे के पश्चात् सोने देना चाहिये, ठंडी बिगड़ी हुई और दुर्गन्धयुक्त खुराक नहीं ग्वाने देनी चाहिये, बहुत खाना अथवा कम खाना, ये दोनों ही नुक्सान करते हैं इस लिये इन से बालक को बचाना चाहिये, भूख लगे बिना आग्रह करके बालक को नहीं खिलाना चाहिये, बालक को कम वा अधिक खाने के लिये नहीं कहना चाहिये किन्तु उस को अपनी रुचि के अनुसार खाने देना चाहिये, खुराक के विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जो खुराक जिस कदर पुष्टिकारक हो वह उसी कदर तौलमें कम खाने को देना चाहिये तथा जिस कदर खुराक कम पुष्टि कारक हो उसी कदर वह तौल में अधिक खानेको देना चाहिये, तात्पर्य यह है कि जहांतक हो सके वालकों को खुराक तौल में कम किन्तु पुष्टिकारक देना चाहिये क्योंकि ऐसा न करने से ब लक का बल घटता है तथा १-२ योंकि पुष्टिकारक खुराक तौलमें अधिक देने से अजीर्ण होकर विकार उत्पन्न होता है और अपुष्टिकारक अथवा कम पुष्टिकाराक खुराक तौलमें कम देनेसे बालक को दुर्बलता सताने लगती है ।। १२ जै: सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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