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________________ १३१ तृतीय अध्याय । बालक का पोषण कराना ठीक नहीं है, हां यदि माता का शरीर दुर्वल हो अथवा दूध न आता हो अथवा पूरा (काफी ) दूध न आता हो तो बेशक अन्य कुछ उपाय न होने से बालकको सात आठ महीने तक तो धाय के पास हो रख कर उसी के दूध से बालक का पालन पोपण करना चाहिये, क्योंकि र रात आठ महीने तक तो दूध के सिवाय बालक की और कोई खुराक हो हो नहीं सकती है। ८-धात्री के लक्षण-जहां तक हो सके धात्री अपने ग्राम की और अपनी जाति को ही रखना चाहिये, तथा उस में ये लक्षण देन्बने चाहिये कि वह अपने ही बालक के समान जीवित और नीरोग बालक वाली, मध्धर कद की. कान्त, सुशील, गढ़ शरीवाली, रोगरहित, सदाचारयुक्न तथा सद्गुणोंवाली होवे, र.दि कदाचित् ऐसी धात्री न मिल सके तो सदा एक ही तनदुरुस्त गाय का जा दूध लेकर तथा दूध से आधा कुछ गर्म पानी और शक्कर को पूर्व कही हुई रीति के अनुसार मिलाकर बालक को पिलाना चाहिये, तथा इस का भी दूध पिलाने के समयके अनुकूल ही नियमानुसार पिलाना चाहिये, दूध पिलाने में इस बात का भी बयाल रखना चाहिये कि बालक को नांबे और पीतल आदि धातु के बर्तन में दूध नहीं मिलाना चाहिये किन्तु मिट्टी अथवा काच के बर्तन में लेकर पिलाना चाहिये, किन्तु बालक के पीने के दूध को तो पहिले से ही उक्त वर्तन में ही रखना चाहिये, दूधको बहुत र करके नहीं पिलाना चाहिये, बहुत सी स्त्रियां गाय भैंस वा बकरी का दूध अंट कर तथा उस में शक्कर इलायची और जायफल आदि डाल कर पिलाया करती हैं-परन्तु ऐसा दूध छोटे बालक को भारी होने के कारण पचता नहीं है, इस लिये ऐसा दूध नहीं पिलाना चाहिये, वास्तव में तो बालक के लिये माता के दूध के समान और कोई खुराक नहीं है. इस लिये जब कोई उपाय + चले तब ही धाय रखनी चाहिये, अथवा ऊपर लिखे अनुसार मिश्रण दृध व सहारा रखना चाहिये। ९-र राक-बालक को ताजी; हलकी; कुछ गर्म; चिके अनुकूल तथा परिक खुराक देनी चाहिये, तथा खुराक के साथ में हमेशा गाय का ताजा और रूच्छ दूध भी देते रहना चाहिये, यदि अनाज की खुराक दी जाये तो उस में जरासा नमक डाल कर देनी चाहिये, क्योंकि-ऐसा करने से खुराक स्वादिष्ट हो जनी है और हज़म भी जल्दी हो जाती है तथा इस से पेट में कीड़े भी कम पड़ते हैं, यदि बालक की रुचि हो तो दूध में थोड़ी सी मिठास आजावे इानी शक्कर वा बतासे डाल देना चाहिये परन्तु दूध को बहुत मीठा कर नहीं पिलाना चाहिये, क्योंकि-बहुत मीठा कर पिलाने से वह पाचनशक्ति को मन्द करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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