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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा | न कुछ बालकों की रक्षा और शिक्षा के लिये आन्दोलन हो कर यथाशक्ति उपाय किया जारहा है परन्तु मारवाड़ देश में तो इस का नाम तक नहीं सुनाई देता है. ऊपर जो प्रणाली ( पूर्वकाल की मारवाड़ देश की ) लिखचुके हैं कि पूर्व काल में इस प्रकार से बालकों की रक्षा और शिक्षा की जाती थी वह अब मारवाड़ देश में बिलकुल ही बदल गई, बालकों की रक्षा और शिक्षा तो दूर रही, मारवाड़ देश में तो यह दशा हो रही है कि जब बालक चार पांच वर्ष का होता है, तब माता अति लाड़ और प्रेम से अपने पुत्र से कहती है कि, “अरे वनिया ! थारे वींदणी गोरी लावां के कालीं" ( अरे वनिये ! तेरे वास्ते गोरी दुलहिन लावें या काली लावें ) इत्यादि, इसी प्रकार से बाप आदि बड़े लोगों को गाली देना मारना और बाल नोचना आदि अनेक कुत्सित शिक्षा में बालकों को दी जाती हैं, तथा कुछ बड़े होने पर कुसंग दोष के कारण उन्हें ऐसी पुस्तकों के पढ़ने का अवसर दिया जाता है कि, जिन के पढ़ने से उन की मनोवृत्ति अत्यन्त चञ्चल; रसिक और विषय विकारों से युक्त हो जाती है, फिर देखिये ! कि, द्रव्य पात्रों के घरों में नौकर चाकर आदि प्रायः शूद्र जाति के तथा कुव्यसनी ( बुरी आदतवाले ) रहा करते हैं - वे लोग अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये बालकों को उसी रास्ते पर डालते हैं कि, जिस से उनको स्वार्थसिद्धि होती है, वालकों को विनय आदि की शिक्षा तो दूर रही किन्तु इस के बदले वे लोग भी मामा चाचा और हरेक पुरुष को गाली देना सिखलाते हैं, और उन बालकों के माता पिता ऐसे भोले होते हैं कि, वे इन्हीं बातों से बड़े प्रसन्न होते हैं और उन्हें प्रसन्न होना ही चाहिये, जब कि वे स्वयं शिक्षा और सदाचार से हीन हैं, इस प्रकार से कुसंगति के कारण वे बालक बिलकुल बिगड़ जाते हैं उन (बालकों) को विद्वान्, सदाचारी, धर्मात्मा और सुयोग्य पुरुषों के पास बैठना भी नहीं सुहाता है, किन्तु उन्हें तो नाचरंग; उत्तम शरीर शृंगार; वेश्या आदि का नृत्य; उस की तीखी चितवन; भांग आदि नशका पीना; नाटक व स्वांग आदि का देखना; उपहास; ठट्ठा और गाली आदि कुत्सित शब्दों का मुख से निकालाना और सुनना आदि ही अच्छा लगता है, दुष्ट नौकरों के सहवास से उन बालकों में ऐसी २ बुरी आदतें पड़ जाती हैं कि जिन के लिखने में लेखनी को भी लज्जा आती है, यह तो विनय और सदाचार की दशा है. अब उन की शिक्षा के प्रबंध को सुनिये -इन का पढ़ना केवल सौ पहाड़े और हिसाब किताब मात्र है, सो भी अन्य लोग पढ़ाते हैं, माता पिता वह भी नहीं पढ़ा सकते हैं, अब पढ़ानेवालों की दशा सुनिये कि पढ़ानेवाले भी उक्त हिसाब किताव और पहाड़ों के सिवाय कुछ भी नहीं जानते हैं, उन को यह भी नहीं मालुम है कि व्याकरण, नीति और धर्मशास्त्र आदि किस चिड़िया का नाम है, अब जो व्याकरणाचार्य कहलाते हैं जरा उनकी भी दशा सुन लीजिये - उन्हों ने तो व्याकरण की जो रेढ़ मारी है उसके विषय में तो लिखते हुए लज्जा आती है - प्रथम तो वे पाणिनीय आदि व्याकरणों का नाम तक नहीं जानते हैं, केवल 'सिद्धो वर्णसमाम्नाय : ' की प्रथम सन्धिमात्र पढ़ते हैं, परन्तु वह भी महाशुद्ध जानते और सिखाते हैं (वे जो प्रथम सन्धिको अशुद्ध जानते और सिखाते हैं वह इसी ग्रन्थके प्रथमाध्याय में लिखी गई है वहां देखकर बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुष समझ सकते हैं कि - प्रथम सन्धि को उन्हों ने कैसा बिगाड़ रक्खा है) उन पढ़ानेवालों ने अपने स्वार्थ के लिये (कि हमारी पोल न खुल जावे ) भोले प्राणियों को इस प्रकार वहका ( भरमा ) दिया है कि बालकों को चाणक्य नीति आदि ग्रन्थ नहीं पढ़ाने चाहियें, क्योंकि इनके पढ़ने से बालक पागल हो जाता है, बस यही बात सब के दिलों में घुस गई, कहिये पाठकगण ! जहां विद्या के पढ़ने से बालकों का पागल हो जाना समझते हैं उस देश के लिये हम क्या कहें ? किसी कविने सत्य कहा है कि - " अविद्या सर्व प्रकार की घट घट मांहि अड़ी। को काको समुझावही कूपहिं भांग पड़ी " ॥ १ ॥ अर्थात् सब प्रकार की अविद्या जब प्रत्येक पुरुष के दिलमें घुस रही है तो कौन किस को समझा सकता है, क्योंकि घट २ में अविद्या का घुस जाना तो कुए में पड़ी हुई १२२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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