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________________ १०२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। तान) आदि होने लगसमय योग्य सँभाल न रखने से बालक नियम पूर्वक न चलने पर पडने वाला असर। के समय खूब सँभल. दिन में सोने से उस के जो गर्भ रह कर बालक उत्पन्न होता भूल चूक से ऐर बोलु (अत्यन्त सोनेवाला) होता है, नेत्रों में अञ्जन ( काजल, उपाय रजने ( लगाने ) से अन्धा रोने से नेत्र विकारवाला और दुःखी ___ रजोदर्शन्तेलमर्दन करने से कोढ़ी, हँसने से काले ओठ दाँत जीभ और तालुआदि साईत बोलनेसे प्रलापी (बकवाद करनेवाला) बहुत सुनने से बहिरा, ज़मीन और इ(कोदने ) से आलसी, पवन के अति सेवन से गैला (पागल), बहुत न माल करनेसे न्यूनांग (किसी अंग से रहित), नख काटने से खराब नखवाला, पहों ( तांबे आदिके वर्तनों) के द्वारा जल पीने से उन्मत्त और छोटे पात्र से ल पीनेसे ठिंगना होता है इसलिये स्त्री को उचित है कि-ऋतुधर्म के समय उक्त दोषों से बचे कि जिस से उन दोषों का बुरा प्रभाव उस के सन्तान पर न पड़े। . इसके सिवाय रजस्वला स्त्री को यह भी उचित है कि-मिट्टी काष्ठ तथा पत्थर आदि के पात्र में भोजन कर, अपने ऋतुधर्म के रक्त (रुधिर) को देवस्थान गौओंके बाड़े और जलाशयमें न डाले, ऋतुधर्म के समय में तीन दिन के पहिरे हुए जो वस्त्र हों उन को चौथे दिन धो डाले तथा सूर्य उदय होने के दो या तीन घण्टे पीछे गुनगुने (कुछ गर्म ) पानी से स्नान करे तथा स्नान करने के पश्चात् सब से प्रथम अपने पति का मुख देखे, जो स्त्री ऊपर लिखे हुए नियमों के अनुसार वर्ताव करेगी वह सदा नीरोग और सौभाग्यवती रहेगी तथा उस का सन्तान भी सुशील, रूपवान् , बुद्धिमान् तथा सर्व शुभ लक्षणों से युक्त उत्पन्न होगा। यह तृतीय अध्यायका-रजोदर्शन नामक दूसरा प्रकरण समाप्त हुआ ॥ तीसरा प्रकरण । गर्भाधान-गर्भाधान का समय । गर्भाधान उस क्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा गर्भाशयमें वीर्य स्थापित किया जाता है, इस का समय शास्त्रकारोंने यह बतलाया है कि-१६ वर्ष की स्त्री तथा २५ वर्षका पुरुष इस (गर्भाधान) की क्रिया को करे अर्थात् उक्त अवस्थाको प्राप्त १-क्योंकि उत्पन्न करने की शक्ति स्त्री पुरुषमें उक्तअवस्थान में ही प्रगट होती है. तथा स्त्रीमें ४५ अथवा ५० वा ५५ वर्षतक वह शक्ति स्थित रहती है, परन्तु पुरुष में ७५ वर्पतक उक्त शक्ति प्रायः रहती है, यद्यपि यूरोप आदि देशोंमें सौ २ वर्ष की अवस्था वालेभी पुरुष के बच्चेका उत्पन्न होना अखबारों में पढ़ते हैं तथापि इस देशके लिये तो शास्त्रकारोंका ऊपर कहा हुआ ही कथन हैं, ८ वर्षसे लेकर १४ वर्षकी अवस्थातक उत्पन्नकरने की शक्ति की उत्पत्ति का प्रारंभ होता हैं १५ से २१ वर्ष तककी वह अवस्था है कि जिसमें अंडकोश में वीर्य बनने लगता है तथा पुरुषचिह्नको प्रयोग में लाने की इच्छा उत्पन्न होती हैं, २१ से ३० वर्षतक पूर्णता की अवस्था है, इसविषय का विशेष वर्णन तआदि ग्रन्थों में देखलेना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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