SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। तान) आदि होने लगती है, खांसी हो जाती है, इस प्रकार ऋतु धर्म के समय नियम पूर्वक न चलनेसे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं, इसलिये ऋतुधर्म के समय खूब सँभल कर आहार विहार आदि का सेवन करना चाहिये, यदि कभी भूल चूक से ऐसा (मिथ्या आहार विहार ) हो भी जावे तो शीघ्रही उसका उपाय करना चाहिये और आगामी को उस का पूरा ख़याल रखना चाहिये। __ रजोदर्शन के समय स्त्रियों को केवल रोटी, दाल, भात, पूड़ी, शाक और दृध आदि सादी और हलकी खुराक खानी चाहिये जिस से अजीर्ण उत्पन्न हो ऐसी और इतनी (मात्रा से अधिक) खुराक नहीं खानी चाहिये, अशक्ति (कमज़ोरी) न मालम पड़े इस लिये कुछ पुष्ट खुराक भी खानी चाहिये, यथाशक्य गर्म कपड़ा पहरना चाहिये परन्तु तंग पोषाक नहीं पहरनी चाहिये, शीत काल में अत्यन्त शीत पड़ने के समय कपड़े धोने के आलस्य से अथवा उनके बिगड़ जाने के भय से काफ़ी कपड़े न रखने से बहुत खराबी होती है, कभी २ ऐसा भी होता है कि-स्त्री ऋतुधर्म के समय बिलकुल खुले और दुर्गन्धवाले स्थान में बैठी रहती है इससे भी बहुत हानि होती है, एवं ऋतुधर्म के समय छत पर बैठने, शरीर पर ठंढी पवन लगने, नंगे पैद ठंडी जमीन पर चलने, भीगी हुई ज़मीन पर बैठने और भीगा कपड़ा पहरने आदि कई कारणों से भी शरीर में सर्दी लगकर ऋतु धर्म अटक (रुक) जाता है और उसके अटक जाने से गर्भाशय में शोथ (सूजन) हो जानेका सम्भव होता है. क्योंकि सर्दी लगने से ऋतु धर्म का रक्त ( खून) गर्भ में जमकर शोथ को उत्पन्न कर देता है तथा पेंडू में दर्द को भी उत्पन्न कर देता है, इस प्रकार गर्भाशय के बिगड़ जानेसे गर्भस्थिति (गर्भ रहने) में बड़ी अड़चल (दिक्कत ) आ जाती है, इसलिये स्त्री को चाहिये कि-उक्त समय में इन हानिकारक वर्तावों से बिलकुल अलग रहे । इसी प्रकार बहुत देर तक खड़े रहने से, बहुत भय चिन्ता और क्रोध करने से तथा अति तीक्ष्ण ( बहुत तेज ) जुलाव लेने से भी ऋतुधर्म में बाधा पड़ती है. इसलिये स्त्री को चाहिये कि-जहां ठंढी पवन का झकोरा ( झपाटा ) लगता हो वहां अथवा बारी (खिड़की या झरोखा) के पास न बैठे और न वहां शयन करे, इसी प्रकार भीगी हुई जमीन में भी सोना और बैठना नहीं चाहिये। इस के सिवाय-स्नान, शौच, गाना, रोना, हंसना, तेलका मर्दन, दिन में निद्र', जुवा, आंख में किसी अंजन आदि का लगाना, लेपकरना, गाड़ी आदि वाहन (सवारी) पर बैठना, बहुत बोलना तथा बहुत सुनना, पति संग करना, देव का पूजन तथा दर्शन, जमीन खोदना (करोदना), बहिन आदि किसी रजस्वला मी का स्पर्श, दांत घिसना, पृथिवी पर लकीरें करना, पृथिवी पर सोना, लोहे तथा तांबे के पात्र से पानी पीना, ग्राम के बाहर जाना, चन्दन लगाना, पुष्पों की माला पहरना, ताम्बूल (पान, बीड़ा) खाना, पाटे ( चौकी) पर बैठना, दर्पण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy