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________________ प्रस्तावना जैन सिद्धान्तों और मन्तव्यों का व्यापक प्रचार न होने के कारण कतिपय यूरोपीय और भारतीय विद्वानों में जैन धर्म और उसके उपदेष्टाओं के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं। भगवान महावीर पर मांसाहार का आरोप भी इसी प्रकार को एक भ्रान्ति है, जो आगम में आये हुए द्वयर्थक शब्दों का यथार्थ अर्थ न समझने के कारण उत्पन्न हुई है। . - अहिंसा के परमोपदेष्टा, करुणा के अवतार भगवान् महावीर किसी भी परिस्थिति में मांसाहार का सेवन करें यह नितान्त असंभव है । जैन धर्म के प्राथमिक अनुयायी, सम्यक्त्त्वी या श्रावक गृहस्थ के लिए भो मांसाहार अवश्यमेव वर्जनीय है फिर साधुओं के लिए तो कहना ही क्या है ? भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट मांसाहार-निषेध की परम्परा आज ढाई हजार वर्ष से अबाध रूप से चली आ रही है । श्री धर्मानंद कौशाम्बी द्वारा लिखित तथा साहित्य एकादमी द्वारा प्रकाशित ' भगवान बुद्ध ' पुस्तक में भगवान महावीर के मांसाहार विषयक प्रकरण को देखकर जैन समाज क्षुब्ध हुआ है। इस भ्रान्त धारणा के निराकरण हेतु भूतपूर्व जैनाचार्य, वर्तमान में श्रमणसंघ के उपाध्याय पं. मुनि श्री १००८ श्री आनन्दऋषिजी म. सा. ने यह सुन्दर एवं युक्तिसम्मत निबन्ध लिखा था जो " जैन प्रकाश" के २३-११-४४ के अंक से प्रारम्भ होकर ७-६-४५ तक के अंकों में क्रमशः प्रकाशित हुआ था । उस निबन्ध को संशोधन पूर्वक शृङ्खलाबद्ध पुस्तकाकार में प्रकाशित करना अत्यन्त आवश्यक मान कर यह प्रकाशन किया जा रहा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034518
Book TitleJain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kaushambi
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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